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सातवीं ज्योति - तारे / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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करते रहते क्यों झिल-मिल
नभ में ये सुन्दर तारे?
खेला करते क्या हिल-मिल
ये आँख-मिचौनी सारे?॥1॥

क्या सुर-बालाएँ ऊपर
हैं मना रही दीवाली?
उनके दीपों की सुन्दर
यह जगमग ज्योति निराली?॥2॥

क्या स्वर्ग-लोक में आली
अप्सरा नृत्य जो करतीं?
उनके वस्त्रों की जाली
से रत्न-रश्मियाँ छनतीं?॥3॥

क्या किसी देव-बाला की
हैं फैल गयी ये मणियाँ?
या बिखर गयीं माला की
उसकी ये सुन्दर लड़ियाँ?॥4॥

क्या निशा सुन्दरी की ये
साड़ी में जड़े सितारे?
चम-चम-चम-चम करते ये
उज्ज्वल, चमकीले न्यारे?॥5॥

क्या विश्व-वृक्ष की डाली
पर हँसती कोमल कलियाँ?
क्या फैला दीं उस माली
ने सुन्दर सुमनावलियाँ?॥6॥

क्या नील गगन-सागर में,
मोती बिखरे हैं आली?
या संध्या की गागर में
ये मणियाँ भरी निराली?॥7॥

क्या छायी गगनांगन में
वर्षा की छटा सजीली?
जिससे जगमग सावन में
जुगुनू की ज्योति रंगीली?॥8॥

क्या किसी इन्द्रजाली ने
रत्नों का जाल बिछाया?
या उस वैभवशाली ने
है अपना कोष लुटाया?॥9॥

क्या प्रकृति-सुन्दरी ने यह
उलटी मणि-मुक्ता झोली?
या नहीं शर्वरी ने यह
निज मणि-मंजूषा खोली?॥10॥

क्या नीले स्वच्छ सरोवर
में पड़ी रत्न परछाईं?
या देती है सुरपुर में
यह रत्न-हाट दिखलाई?॥11॥

क्या दीपक थाल सजाकर
सुरपुर-बालाएँ लायीं?
करने निज प्रिय की पूजा
हर्षित होकर है आयी?॥12॥

तारावलियो! क्यों करतीं
प्रकटित तुम भेद न अपना?
जिससे मिट जाये सबकी
यह उलझन, स्वप्न, कल्पना॥13॥