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सत्रहवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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बरसो बरसो
सावन के घन!
गया ग्रीष्म
बरसा कर
धरती की छाती पर
ज्वाला के कण
रहे शेष ये
केवल घावों के अनगिन वृण!
झुलसे,
जले,
कटे
चिल्लाते और चीखते
ये भी प्रतिक्षण;
किन्तु आज ये मौन!
विश्व कहता
‘सहिष्णु ये!
युग-युग से
कर रहे सहन
कर रहे वहन
पीड़ा का बोझिल भार!
और हुआ इनको अपनी
पीड़ा से ही रे प्यार!!’
पर मेरा कवि
समझ नहीं पाया
जग के इस तर्क-जाल को!
बनी ग्रीष्म के
जीवन की दिनचर्या-क्रीड़ा
धरती के
तन की
मन की
अन्तर की पीड़ा!
खेल एक का,
किन्तु
दूसरे के जीवन के साथ इस तरह
हो खुलकर खिलवाड़!
फिर भी रे यह तर्क कि
धरती को अपनी पीड़ा से प्रेम प्रगाढ़!!
तर्क नहीं यह
उस जग के द्वारा जीवन को
खुली चुनौती
और खुला उपहास,
जो लिखता है और लिखाता
अणुबम के बल पर अपना इतिहास!
और टिका है
लाशों पर
जिसका मजहब
औ’ जीवन का विश्वास!!
सच तो यह है-
‘सहन शक्ति की
सीमा को जब
पार किसी के
उर की पीड़ा कर जाती है,
हो जाता है
वह अचेत, बेहोश!
व्यक्त नहीं कर पाती है
उसकी वाणी कुछ,
होकर वह मजबूर, विवश
रह जाता है बस मूक और खामोश!
उसी दशा में आज धरा
संज्ञा-विहीन,
चेतनाहीन
औ’ मूक!
पड़ी हुई बेसुध
उसके तन-प्राण रहे हैं सूख!!
इस पीड़ा से
अधिक तीव्र
है एक और
पीड़ा उसको
अपनी सरिता की
उस सरिता की
जो उसकी ही
पली गोद में
हर्ष मोद में
और जिसे
उसने छाती से
लगा-लगा कर
अब तक इतना
बड़ा किया
सागर को सौंपा!
उस सरिता की
जिसके तन पर
अंचल बन कर
अनगिन लहरे
मस्त पवन में
फहरा करतीं
प्रतिक्षण-प्रतिपल।
उस सरिता की
आज लाज
ढँकने को
जिसके पास नहीं है
एक लहर तक का अंचल भी!
गए छीन ले उसको भी
निर्दयी ग्रीष्म के वे निर्मम कर!!
लख समक्ष
अपने नयनों के
क्रूर दृश्य यह
सह न सकी धरती पल भर भी।
वाणी तो पहिले ही से थी मूक,
दीख रही हैं
दूर दरारें जो अनगिन ये
बतलातीं-
छाती उसकी फट गई
और शोकातुर उर के
हुए अनेकों टूक!!
इसीलिए मैं
आज गगन के
इन मेघों से-
स्वयं मिटा अस्तित्व
विश्व को
नवजीवन
प्रदान करने वाले मेघों से-
कहता हूँ
बरसाओ
शीतल
अमृतमय
जल की धाराएँ
भू पर अविरल!
धुलें घाव
धरती के गहरे
और मिले सरिता को
उसकी लाज ढाँकने
उर्मिल अँचल!
भर उमंग में
नव तरंग में
हो धरती का
हरा-हरा मन
हर्षित,
प्रमुदित,
पुलकित
कण-कण!!