इक्कीसवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
(तुलसी के प्रति)
अमर स्वरों में गाई ओ कवि! तू ने अमर कहानी!
गया, किन्तु दे गया विश्व को अपनी अमर निशानी॥
तू नैराश्य-दग्ध भारत-भूपर घन बन छाया था,
मृत प्राणों पर अमृत का सागर बन लहराया था;
नाच उठा मन का मयूर सुन तेरी मधुमय वाणी।
अमर स्वरों में गाई ओ कवि! तू ने अमर कहानी॥
प्रलय-प्रभंजन में तेरी ही जगमय-ज्योति जली थी,
ज्ञात हमें अब तक न हमारी नौका किधर चली थी;
छूट चुके थे तट, हिलोर उठती-गिरती तूफानी।
अमर स्वरों में गाई ओ कवि! तू ने अमर कहानी॥
पाकर ज्योर्तिमय रेखाओं का प्रकाश हम फूले,
तेरे बल पर ही हँस-हँस कर मृत्यु-कणों में झूले;
अग्नि-परीक्षा हुई, किन्तु था शीतल अंक हिमानी।
अमर स्वरों में गाई ओ कवि! तू ने अमर कहानी॥
विगत चार-सौ वर्षों का इतिहास देश-संस्कृति का,
रचा तुम्हीं ने; बोल रहा है कण-कण एक प्रकृति का;
करना है संघर्ष आज से ओ मेरे सेनानी।
अमर स्वरों में गाई ओ कवि! तू ने अमर कहानी॥
आज विश्व सभ्यता, संस्कृति, प्रेम सभी सपना है,
विश्व विभक्त हुआ टुकड़ों में स्वार्थ-वितान तना है;
परिवर्तित परिभाषा की युग ने अपनी मनमानी।
अमर स्वरों में गाई ओ कवि! तू ने अमर कहानी॥
अट्टहास कर रही विश्व में रावण की दानवता,
त्राहि-त्राहि करती चिल्लाती आज त्रस्त मानवता;
बुला सकेगा कौन ‘राम’ को? केवल तेरी वाणी।
अमर स्वरों में गाई ओ कवि! तू ने अमर कहानी॥
मानव का आदर्श पुनः जग में स्थापित करना है,
विश्व-मैत्री, विश्व-प्रेम से विश्व-हृदय भरनाहै;
तू ही था जिसने जगती यह ‘सियाराममय जानी।’
अमर स्वरों में गाई ओ कवि! तू ने अमर कहानी॥
‘चरित राम का स्वयं काव्य है कोई कवि बन जाये’,
पर कवि, तेरे ‘रामचरित मानस’ ने राम बनाये;
अमर सदा तू जब तक क्षिति-नभ अग्नि-पवन औ’ पानी।
अमर स्वरों में गाई ओ कवि! तू ने अमर कहानी॥