यह नहीं विश्राम-स्थल रे / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
यह नहीं विश्राम-स्थल रे!
टिक गया है क्यों यहाँ तू ले उठा सामान चल रे!!
छोड़ कर जिस देश को इस
देश में आया विचरने;
छोड़ कर जिस वेष को इस
वेष में आया निकलने।
देश या औ’ वेष यह तेरा नहीं, मत भूल कर रे!
याद कर उस देश की
जिसमें उषाएँ माँग भर कर;
नित्य प्रातःकाल जातीं
शीश पर स्वर्णिम कलश धर।
दूर जल भरने जहाँ शोभित अनंत, असीम जल रे!!
याद कर उस वेष की जो
नवल संध्याएँ पहनतीं;
मणि-विभूषित नील अम्बर
भाल में बेंदी झलकती।
धवल मौक्तिक माल से शोभित रजत अंचल विमल रे!!
याद कर वे दिवस जिनमें
दिनकरों की किरण अरुणिम;
नित्य संध्या और ऊषा
का बनाती रूप स्वर्णिम!
‘खिल सके ये कमल’, कहतीं सूर्य से ‘मत अधिक जल रे’!!
याद कर वे रात्रि जिनमें
शशि मधुर अठखेलियों में;
मस्त रहते तारिकाएँ
सथ ले रँगरेलियों में।
‘कृष्ण के औ शुक्ल’ के कब पक्ष में ज्योत्सना अमलरे!!
याद कर वह मृदु समीरण
स्पर्श में जो मलय होकर;
बह रहा अविराम जग को
सुरभि का सन्देश देकर।
‘बुझ न जाये दीप’ कहती वर्तिका ‘वह चाल चल रे’!!
याद थी उस देश की जब
था रुदन ही एक सम्बल
याद थी उस वेष की जब
नग्न था यह तन सुकोमल!
चित्र चित्रित था सरस गम्भीर जब उर था चल रे!!
आज भूला है उन्हें
कृत्रिम हँसी के आवरण में,
आज फूला है सजा तन
देख अस्थिर आभरण में।
झूलता उर और ही लख चित्र चंचल, मन विकल रे!!
खिल रहा तेरा हृदय लख
सुमन उपवन के रँगीले,
झूमता हो मस्त जैसे
मधुप मंडराते हठीले।
चटक कलियाँ कान में कहतीं ‘मधुर रस-पान कर रे’!!
चमक भरती हैं निरन्तर
जगमगाती व्योम-मणियाँ
सोचताहै वक्ष शोभित
ये करेंगी शुभ्र लड़ियाँ।
कल्पना चुपचाप कहती-‘कार्य यह कितना सरल रे’!!
किन्तु ओ भूले पथिक! यह
क्षितिज का-सा मधु मिलन है,
सोचता जीवन जिसे वह
मृत्यु का नव संस्करण है।
अमिट शब्दों में लिखा है-‘ठहरना दस-पाँच पल रे’!!
और यह विश्राम-स्थल भी
है स्वयं नश्वर क्षणिक रे!
अचिर अविनश्वर जगत का
तू अमर वासी पथिक रे!
हो यहाँ निश्चिन्त मत विश्राम कर तू एक पल रे!!
उस अपार असीम जग में
है कुटी तेरी पुरानी;
यह नवीन ससीम स्थल
है चार दिन की ही कहानी।
दीप की स्वर्णिम शिखा कहती-वहाँ हो पथिक, चल रे!!