भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शूल चुभता रहा / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:02, 6 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शूल चुभता रहा, फूल खिलता रहा।

यह कहानी पुरानी, नहीं आज की,
है चली आ रही फूल की, शूल की;
जिन्दगी का यही सत्य है, बात यह
समझने में नहीं फूल ने भूल की।
तोड़ कर ले गये स्वार्थी हाथ, पर
वक्ष छिदता रहा, हार गुँथता रहा॥1॥

पर्वतों के हृदय देख पाषाण-से
खा सका मेल जीवन-सरित का नहीं;
आ गिरी वह धरा की मृदुल गोद में
झट तटों ने लिया बाँह में भर वहीं।
किन्तु उस सरित की धार ही बाद में
घाव करती रही, कूल सहता रहा॥2॥

दूर करने अँधेरा धरा का, दिया
युग-युगों से निरन्तर स्वयं जल रहा;
औ’ पवन भी बुझाने उसे आदि से
तोलता शक्ति अपनी सतत् चल रहा।
पर न टूटी कभी ज्योति की शृंखला
पवन चलता रहा, दीप जलता रहा॥3॥

घूँट मीठे नहीं जिन्दगी के बहुत
इसलिए विष अमृत मान पीता रहा;
एक गायक कहीं दूर एकान्त में
बैठ गाता रहा गीत, जीता रहा।
साथ की बीन के तार से सम-विषम
स्वर निकलता रहा, गीत चलता रहा॥4॥

एक व्रत, साधना एक लेकर चला
ज्यों पथिक, पंथ पर मोड़ अनगिन मिले;
भूलता औ’ भटकता हुआ वह फिरा
पर न विश्वास के पैर पल-भर हिले।
सूर्य-शशि को निगल घन गरजते रहे,
वज्र गिरते रहे, पैर उठता रहा॥5॥

11.7.60