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महाकाल / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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अरे निर्दय-रक्ताक्त-पिशाच!
कहाँ तेरे ज़हरीले-बाण?
कहाँ वह तेरा अग्नि-त्रिशूल?
कहाँ वे नारकीय यम-दंड?

तड़पती आज दीनता दीन!
धूल में लोट-लोट असहाय!
खून के बहते अश्रु-प्रवाह!
पाप का तांडव-नृत्य-कराल!

टहलता फिरता है अभिमान!
घुमाता अनाचार का चक्र!
कुचल पैरों से महाप्रचंड
अनाश्रित-दुर्बल-जीवन क्षुद्र!

क्रोध का अट्टहास यह देख!
निर्बलों पर यह अत्याचार!

हाय री! दानवता विकराल!
हाय पशुता! नृशंसता! हाय!

x x x x

आज तू कहाँ?
शांत क्यों बोल?
कहाँ तेरा अदम्य-उल्लास?
कहाँ सर्पिणी-शक्ति, फुफकार?
कहाँ वह प्रतिहिंसा की आग?

टूट पड़ता क्यों इनपर नहीं
दरिद्रों का क्यों करता नाश?
अरे जल्लाद! निठुर-बेपीर!
बोल, क्यों शिथिल हुआ तू आज?

x x x x

प्रलय के शांत-शून्य में घोर
कौन छिपकर चलती अनजान?
नियति?
री पिशाचिनी-विकराल!
दिखा मत अपना भीषण-रूप!

महत्त्वाकांक्षाओं के उच्च
रक्त-रंजित आसन पर बैठ
अहा! मुस्काता अत्याचार!
घृणा से आँख तरेर-तरेर
विजय है उसके चारों ओर

एरे महा-दुर्दान्त-काल
एरे प्रचंड! बस एकबार-
चमका अपनी खूनी-कटार!
शोणित-प्यासी जिह्वा निकाल!

भुज-दंड पटक, कर अट्टहास
छाती पर आज धरित्री के
कर अपना बज्र-चरण प्रहार!

तूफ़ान बहादे क्रोध फूँक
कैलास हिलादे रे उदंड!
नगपति को करदे चूर-चूर
उल्का-निपात कर बार-बार

दे उठा भयंकर बड़वानल
हत्यारे! कर दे विश्व भस्म!
जा लील सूर्य-शशि आसमान
खूखार! ज़हर के बादशाह!

उन्मत्त! तान तीक्ष्ण-त्रिशूल
आसुरी-शक्ति का हृदय छेद!
बीभत्स भयानक नरक-दूत
ले दौड़ निरंकुश! दाँत पीस!

धधका श्मशान की चिता-ज्वाल
कर सड़ी-लाश पर लघु विहार!
लोलुप की कुत्सित-खाल खींच
कर तूर्य-नाद!-कर तूर्य-नाद!

x x x x

काँप रे अहंकार! तू काँप!
द्वेष की दुनिया तू भी काँप!
घृणा मत कर, दीनों से, काँप!
काँप री नीच-वासना! काँप!

उठा है पीड़ित का निःश्वास
क्रान्ति का बनकर उग्र स्वरूप!
भस्म करने को आज त्रिलोक!
काँप रे विश्व-विजेता! काँप!
11.1.28