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ऋतुओं के खोखले रबाब / योगेन्द्र दत्त शर्मा
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बेवजह उलझता है
यह मन भी
अनचाहे
सुर्खरू गुलाबों में!
बिधी हुई उंगली
छू जाती है
अक्सर
भीगी उदास रातों में
सिहरन-सी
रेंगती
बदन-भर में
कांटों की
क्षुद्र वारदातों से
चिकने-उजले सवाल
छिलते हैं
मौसम के
खुरदरे जवाबों में!
शेष बचे
कंधों पर
ढोने को
घायल शव
सोनबरन सपनों के
पीने को विष
बुझती
आंखों का
खाने को
रेशम वाले धोखे
बजता है सन्नाटा
सांझ-ढले
ऋतुओं के
खोखले रबाबों में!