कांस, कुछ करील
कुछ बबूल हो गये!
हम सब
इतिहासों की भूल हो गये!
कल के मिजराब
नाज बघनखे हुए
मुरझाये फूल
ताख पर रखे हुए
रंग-गंध से
नाते दूर के हुए
धुंधलाये बिम्ब
नखत धूल हो गये।
मौसम के माथे
यह क्या व्यथा बढ़ी
शीशे में कांप रही
बीसवीं सदी
बालू में डूब गई
भीतरी नदी
उड़ते ध्वज
धंसते मस्तूल हो गये!
जाने किस जोगी की
लगी बद्दुआ
गुमसुम-सा सोच रहा
पर-कटा सुआ
पिंजरे के बाहर भी
हादसा हुआ
अपने ही
चेहरे प्रतिकूल हो गये!