Last modified on 17 मार्च 2017, at 10:35

खामोशी / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:35, 17 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमारेन्द्र सिंह सेंगर |अनुवादक=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक निस्तब्धता
हम दोनों के बीच
सदियों से छाई है।
हम दोनों साथ चलते रहे
जाने कब से मगर
इस मौन को न तोड़ सके।
वह बात
जो मैं सुनना चाहता था
तुम्हारी आवाज़ में,
उसे नज़रों की भाषा में
पढ़ सके।
हमारी बात दिल की
दिल में ही रह गई,
एक खामोश मौन की
गहराइयों में बह गई।
तुम्हारे लबों पर,
तुम्हारे विचारों की लय पर
पहरा लगा था समाज का,
परदा पड़ा था
शर्म और लाज़ का,
पर मैं... मैं क्यों मौन रहा?
क्यों खामोशी का दामन थामे
यूँ चलता रहा?
हवा के हर झोंके ने,
बादलों की हर अँगड़ाई ने
छूकर पास से,
सिरहन मचाकर तन में
मौन को तोड़ना चाहा,
पर....
सफर यूँ ही खामोश कटता रहा।
आज फिर तुम्हारी नज़रों ने
संग ले इस सुहाने मौसम का
कुछ पूछना चाहा,
खामोश दर्प को तोड़ना चाहा।
नज़रों ने
नज़रों की निस्तब्धता को तोड़ा,
हम फिर भी
वैसे ही खामोश रहे,
नज़रों के सहारे ही
कुछ कहते रहे।
और चल पड़े अगले पल
वैसे ही खामोश, मौन,
निस्तब्धता लिए।
न पता कब तक
यूँ अनवरत,
शायद जनम-जनम तक,
इस जनम से उस जनम तक।