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चलता-फिरता पारी / विष्णुचन्द्र शर्मा
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विदाई
हँसी की एक बुनावट है
नहीं वह एक नदी है चेहरे पर...
चलती-फिरती।
नहीं वह चलता-फिरता पारी का शहर है
नहीं सभ्यता का है यह अविभाजित आकाश।
पारी तुम सजीव हँसी हो
मेरे लिए हो विदाई की हँसी।
क्या बूढ़ी हो गई है मेरी घुमक्कड़ी?
फिर भी हम दोनों हर कक्ष में
हँसी का अपना-अपना
नक्शा छोड़ आए हैं।