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बिहारी सतसई / भाग 61 / बिहारी

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मुँह पखारि मुँड़हरु भिजै सीस सजल कर छाइ।
मौरि उचै घूँटैनु तैं नारि सरोवर न्हाइ॥601॥

मुँड़हरु = सिर का अगला भग, ललाट। सजल = जलयुक्त, जलपूर्ण। मौरि = मौलि = मस्तक। उचै = ऊँचा उठाकर। घूँटैनु तैं = घुटनों से। न्हाइ = स्नान करती है।

मुख धोकर, ललाट भिगोकर, और सिर से जलयुक्त हाथों को छुलाकर (बालों पर जल ढालकर), सिर ऊँचा किये और घुटनों के बल से, वह स्त्री पोखरे में स्नान कर रही है।


बिहँसति सकुचति-सी दिऐं कुच आँचर बिच बाँह।
भीजैं पट तट कौं चली न्हाइ सरोवर माँह॥602॥

कुच = स्तन। बाँह = बाँह, हाथ। पट = कपड़ा। तट = किनारा। न्हाइ = स्नान कर। सरोवर = पोखरा।

सरोवर में स्नान कर मुस्कुराती और सकुचाती हुई-सी अपने हाथों को कुचों और अंचल के बीच में दिये हुए गीले कपड़े पहने ही तट की ओर चली।

नोट - ”कुच आँचर बिच बाँह“ में स्वाभाविकता और रस-मर्मज्ञता खूब है। सहृदयता से पूछिए कि कहीं किसी घाट पर परखा है।


मुँह धोवति एँड़ी घसति हँसती अनगवति तीर।
धसति न इन्दीबर-नयनि कालिंदी कै नीर॥603॥

अनगबति = जान बूझकर देकर करती है। इन्दीबर = नील कमल। इन्दीबर-नयनि = कमलनयनी। कालिन्दी = यमुना।

(वह कामिनी) घाट ही पर (श्रीकृष्ण को देखकर) मुँह धोती, एँड़ी घिसती, हँसती और जान-बूझकर (नहाने में) विलंब करती है; (किन्तु) वह कमल-लोचना, यमुना के पानी में नहीं पैठती।


न्हाइ पहिरि पटु डटि कियौ बेंदी मिसि परनामु।
दृग चलाइ घर कौं चली बिदा किए घनस्यामु॥604॥

पट = वस्त्र। मिसि = बहाना। दृग चलाइ = आँखों के इशारे कर।

स्नान कर, कपड़ा पहन, सज्जित हो, बेंदी लगाने के बहाने प्रणाम किया-बेंदी लगाते समय मस्तक से हाथ छुलाकर इशारे से प्रणाम किया। फिर, आँखों से इशारे से श्रीकृष्ण को बिदा कर स्वयं भी घर को चली।


चितवत जितवत हित हियैं कियैं तिरीछे नैन।
भीजैं तन दोऊ कँपैं क्यौंहूँ जप निबरैं न॥605॥

चितबत = देखते हैं। जितबत = जिताते हैं। निबरैं न = नहीं (निवृत) समाप्त होता या निबटता।

आँखें तिरछी किये (एक दूसरे को) देखते हैं, और (अपने-अपने) हृदय के प्रेम को जितातेहैं-अपने-अपने प्रेम को उत्कृष्ट (विजेता) प्रमाणित करते हैं। (यों) भींगे हुए शरीर से दोनों काँप रहे हैं, (किन्तु उन दोनों का) जप किसी प्रकार समाप्त नहीं होता।

नोट - नायक और नायिका (दोनों) स्नान के बाद जप करते हुए ही एक दूसरे को देख रहे हैं। दोनों ही जान-बूझकर जप करने में देर कर रहे हैं। दर्शन-लालसा के आगे सर्दी की कँपकँपी क्या चीज है!


दृग थिरकौंहैं अधखुले देह थकौंहैं ढार।
सुरति-सुखित-सी देखियतु दुखित गरभ कैं भार॥606॥

दृग = आँखें। थिरकौहैं = थिरकते हुए-से, बहुत धीरे-धीरे नाचते हुए-से। थकौंहैं ढार = थके हुए के ढंग के, थके हुए-से। सुरति-सुखित-सी = तुरत समागम करके प्रसन्न हुई-सी। गरभ = गर्भ।

अधखुले नेत्र थिरकते-से हैं-मन्द-मन्द गति से इधर-उधर होते हैं-और शरीर थका हुआ-सा है। गर्भ के बोझ से दुःखित (वह नायिका) समागम करके प्रसन्न हुई-सी दीख पड़ती है। (लक्षणों से भ्रम होता है कि वह गर्भ के भार से दुःखित नहीं है, क्योंकि समागम-जनित चिह्न प्रत्यक्ष हैं)।

नोट - गर्भवती नायिका का वर्णन-आँखों की मन्द (आलस-भरी) गति, उनका आधा खुला रहना (झपकी-सी लेना) और देह थकी-सी मालूम पड़ना। ये लक्षण वास्तव में गर्भ और समागम (दोनों) के सूचक हैं।


ज्यौं कर त्याैं चुहुँटी चले ज्यौं चुहुँटी त्यौं नारि।
छबि सौं गति-सी लै चलै चातुर कातनिहारि॥607॥

कर = हाथ। चुहुँटी = चुटकी। नारि = गर्दन। गति-सी लै चलै = गति-सी लेकर चलती है, नृत्य-सी कर रही है।

जिस प्रकार हाथ चलता है, उसी प्रकार चुटकी भी चलती है और, जिस प्रकार चुटकी चलती है, उसी प्रकार गर्दन भी चलती है- इधर-उधर हिलती है। यह चतुर चरखा कातने वाली अपनी इस शोभा से (मानो नृत्य की) गति-सी ले रही है।


अहे दहेंड़ी जिन धरै जिनि तूँ लेहि उतारि।
नीकै हैं छीके छवै ऐसी ही रहि नारि॥608॥

अहे = अरी। दहेंड़ी = दही की मटकी। छीके = सींका, मटकी रखने के लिए बना हुआ सिकहर, जिसे छत या छप्पर में लटकाते हैं।

अरी! तू न तो मटकी को (सींके पर) रख, न उसे नीचे उतार। हे सुन्दरी! (तेरी यह अदा) बड़ी अच्छी लगती है-तू इसी प्रकार सींके को छूती हुई खड़ी रह।

नोट - सुन्दरी युवती खड़ी होकर और ऊपर बाँहें उठाकर ऊँचे सींके पर दहेड़ी रख रही है। खड़ी होने से उसका अंचल कुछ खिसक पड़ा और बाँहें ऊपर उठाने से कुच की कोर निकल पड़ी। रसिक नायक उसकी इस अदा पर मुग्ध होकर कह रहा है कि इसी सूरत से खड़ी रह-इत्यादि। इस सरस भाव के समझदार की मौत है! चतुर्थ शतक का 362 वाँ दोहा देखिए।


देवर फूल हने जु सु-सु उठे हरषि अँग फूलि।
हँसी करति औषधि सखिनु देह-ददोरनु भूलि॥609॥

हने = मारना। देह-ददोरनु = देह में पड़े हुए चोट के चकत्ते।

देवर ने जिन-जिन अंगों में फूल से मारा, सो (उस फूल के लगते ही भौजाई के) वह-वह अंग आनन्द से फूल उठे, (क्योंकि देवर से उसका गुप्त ‘प्रेम’ था) किन्तु सखियाँ भूल से (उस सूजन अथवा पुलक को) देह के दोदरे समझकर दवा करने लगीं। (यह देख भावज) हँस पड़ी (कि सखियाँ भी कैसी मूर्ख हैं जो मेरे प्रेम से फूले हुए अंग को फूल की चोट के दोदरे समझ रही हैं!)


चलत जु तिय हिय दई नख-रेखानु खरौंट।
सूकन देत न सरसई खोंटि-खोंटि खत खौंट॥610॥

नख-रेखानु = नहँ की छिछोर से बनी रेखाएँ! खरौंट = खरोंच, छिछोर, चमड़ा छिल जाने से बना हुआ घाव। सरसई = ताजगी, गीलापन। खत = घाव। खौंट = खोंटी, घाव के ऊपर का सूखा हुआ भाग।

चलते समय में जो प्रिया की छाती में प्रीतम ने नखक्षत की रेखा दे दी-चलते समय प्रीतम द्वारा मर्दित किये जाने पर प्रिया के कुचों में जो नहँ की छिछोर लग गई-सो उस घाव की खोंटी को (वह नायिका) खोंट-खोंटकर उसकी सरसता सूखने नहीं देती-घाव को सदा ताजा (हरा) बनाये रखती है (ताकि इससे भी प्रीतम सदा याद रहें।)