भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बादरे! / तरुण
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:49, 20 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर खंडेलवाल 'तरुण' |अनुवादक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(खंभात की खाड़ी की ओर से उमड़ते-घुमड़ते आते बादलों को देखकर)
गदबदे-गदबदे, साँवरे-साँवरे,
आ गये बादरे!
केश बिखरे हुए आँख अंजन-अँजी,
बीजुरी, दोलड़ा स्वर्णकंठी सजी,
रूपवन्ती किसी गोरटी की मदिर-
मस्त-माते नयन में सजल याद ले!
आ गये बादरे!
छमछमाते चरण में ठुमक मणिपुरी,
लंक में है लचक, ओठ पर बाँसुरी;
झाँवरी-झाँवरी, दूबरी-दूबरी-
आ गये हैं, धरा को लगाने गले!
आ गये बादरे!
1960