भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज, जो चाहे कहो... / तरुण

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:51, 20 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर खंडेलवाल 'तरुण' |अनुवादक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज तो यह मन भटकता-दूर-दूर, सुदूर,
है जहाँ बस रेत, सागर, चाँद, नाव, खजूर,
बैंगनी जल छौंकता-सा क्षितिज का अंगार,
आज, जो चाहे कहो, सब कुछ हमें स्वीकार!

आज मन में है न ज्वाला, ताप, या प्रतिशोध,
है हमें करना किसी का भी न आज विरोध,
स्थगित सारा कार्य-मन का आज है रविवार!
आज, जो चाहे कहो, सब कुछ हमें स्वीकार!

आज जी करता-पखेरू छोड़कर निज नीड़
जा रहा जिस ओर, जाऊँ मैं भुलाने पीड़!
नयन में फैला गगन हो, पग-तले संसार!
आज, जो चाहे कहो, सब कुछ हमें स्वीकार!

आज दृग में भर किसी का गुलमुहरिया रूप-
कनपटी पर, साँझ की सहता रहूँ यह धूप!
आज कोई भी न कुछ मुझसे करे व्यवहार!
आज, जो चाहे कहो, सब कुछ हमें स्वीकार!

1957