मैं-लघु, सीमित, चार फुटा!
पर, ओ-हो, मुझमें क्या-क्या आया-
उमड़ा-घुमड़ा, आ-आ जुटा!
सरपट दौड़ी हैं मुझमें
रेगिस्तानी काली-पीली आँधियाँ,
भय, संशय, संत्रास रहे हैं मुझे घेरे!
भोगे हैं मेरी चेतना ने बार-बार
तहों-पर-तहों जमे घने-काले, जामुनियाँ अँधेरे!
तने हैं, टँगे हैं मेरे मन के मेघों पर इन्द्र-धनुष सतरंगे,
धमाचौकड़ी मचा गए हैं मुझमें काल के उजड्ड पाँव नंगे।
वर्षा और धूप के कोमल मिक्शचरों वाली आभाएँ;
निकली हैं करके मेरे मन में निष्ठुर करुण क्रीड़ाएँ।
गिरी हैं मन पर गाजें,
लगी हैं कठघरे में खड़े होने की आत्मिक अदालती आवाजें।
आये हैं मुझमें महकते संगीत के सैलाब,
दहाड़े हैं मुझमें भूकम्प-बेताब।
इस काया की कत्थई-ताम्रिल इस्पाती तटीय चट्टानों से
पछाड़ खा-खा लौटे हैं-
ज्वारों वाले अतलान्त समुद्र-
हिनहिनाते घोड़ों के अयालों-से फेन लिये,
दिखलाते अपना रूप रुद्र!
1983