नहीं, नहीं नहीं।
यह तो जीवन नहीं था, शक्ति-उल्लास से पूरित-
मानव की मूल संकल्पना व सर्जन के साथ-
जो था अभीष्ट, निर्धारित।
यह तो मिला-वट का पेड़, खूसट, जर्जर,
रूढ़ि-सम्प्रदायों के खोह-कोटरों का
गिलहरियों-भरा;
जिस पर ताँबे-से जीर्ण पत्ते करते रहते-खर्-खर्।
जीवन देखना चाहता था मैं तो-
अनारदाने-से गोरे-कसे सुडौल वक्षोज पर
अरुण-गुलाबी स्निग्ध
रूप-यौवन-ज्वार से दरकती चोली पहने
केसरिया लहँगा लहराती, क्षितिजों पर-
मुसकराती आती रूपवन्ती उषा-सा!
जीवन देखना चाहता था मैं तो-
ग्राम-ताल के किनारे, कस्बई मेले में
धरती की सौंधी माटी-रज से सने
साड़ी-घाघरे की पटलियाँ फहरा-फहरा कर,
अंग-लता लहरा-लहरा कर, ढोलकी की थाप पर
उन्मुक्त झूमरों में नाच-नाच उठती,
रागिनियाँ छहराती-छितराती
चिड़ियाकंठी लोक-नर्तकी-सा!
जीवन देखना चाहता था मैं तो-
रूम-झूम कर हिलोरें भरती,
नीले आकाश के नीचे आ-क्षितिज पवन-सँवरती
सरसों की फागुनी पीली-पीली हल्दिया खेतियों-सा-
जेठ में गमकते गुलमुहरों, पलाशों-सा!
पहाड़ी झरनों-सा, हरिणी की छलाँगों-सा
साँवली वन-कन्या की रक्त धौंकती स्नायु शिराओं-सा!
आह, मानव के समुद्री शक्ति-उल्लास से भरे
सस्वर थिरकते मौलिक जीवन! किधर छिपे हो?
तुम कहाँ हो? तुम कहाँ रहे?
1987