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खंडहर भी नहीं हमारा शहर / विजय किशोर मानव

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खंडहर भी नहीं हमारा शहर
ख़ाक का बुत बना है सारा शहर

दियों को रोशनी की तंगी है,
इन नई आंधियों का मारा शहर

हर एक होंठ पे ख़ामोशी है
चीख़ता है मगर हमारा शहर

किसी ने जंग में नहीं जीता
ताश की बाज़ियों में हारा शहर

जल के भी राख नहीं होता है
आग की नदी का किनारा शहर

लूट ले जाती हैं सुबह सांसे
शाम लौटे है थका-हारा शहर