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दोपहर है बहुत घाम है / विजय किशोर मानव

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दोपहर है, बहुत घाम है
ज़िंदगी है, बहुत काम है

पांव से सौ थकानें बंधीं
और चलना सुबह-शाम है

रोज़ अख़बार में छप रहे पर
स्याहियों में दबा नाम है

गर्म है रात भी, चांदनी भी
सिर्फ़ भ्रम है कि आराम है

चित्र हैं हर तरफ़ शांति के
पर रंगा एक कुहराम है