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मानवीय पीड़ा का ज़िगुरत / अनिल अनलहातु

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हमारे बहुत पहले उठने के
बहुत पहले उठ जाती है,
ताकि खलल न पड़े
हमारे आराम देह सपने रहें
सुरक्षित।

आधी नींद व विच्छिन्न स्वप्नों की
कातरता लिए,
पानी के सूखे नल, हैण्डपम्प
और जूठे बर्तनों से
उसने कर ली है गहरी पहचान।

उसकी उदास भाव हीन आँखें पीछा करतीं
व्यस्ततम क्षणों में भी,
मानवीय पीड़ा का इतिहास
ज्यों फूली हुई लाश
रिगोबेर्टा मेंचू (2) की
फैली हो ग्वाटेमाला से एंडीज तक,
दुमका-गोड्डा के आदिम जंगलों से
हमारे घरों के शयन-कक्ष तक।

रोने और न रोने के बीच का
पथराया आर्तरूदन पसरा है


लू
मूर्मू ।

अपने बोझील एकाकीपन और
निरीह तन्हाईयों में
वह एक ख़ामोशी से चलकर
दूसरी ख़ामोशी तक पहुँचती।

उसके त्रासद सपनों में
कोई राजकुमार नहीं आता।

सिले हुए होंठों, खौफजदा बरौनियों
उदास लम्बोतरे चेहरे पर चिपकी
अवश बेबसी व बेकली के बीच भी
ज़िन्दगी जीने की एक गहरी ललक
(हम विस्मित थें) ।

वह भाषा मतलब आदेश
और
शब्दों को
कुत्तों का कटखनापन समझती।

उसके होठों पर हँसी देखना
एक लंबा और उबाऊ इंतज़ार है।



 
सन्दर्भ (1) ज़िगुरत: 2100 ईसा पूर्व (B.C.) में मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) के "उर" शहर में राजा 'उर-नाम्मु' द्वारा निर्मित "सिन" (चन्द्रमा) देवता का मंदिर। हज़ारों वर्षों तक पुराने मंदिर के मलबे पर नए मंदिरों का निर्माण होता रहा । इस तरह हर नया निर्माण पुराने के विध्वंस पर खड़ा होता रहा ।यह भी नोट करने लायक है कि इस मंदिर में पुजारिन राजा की बेटी होती थी।
 (2) रिगोबेर्टा मेंचू: नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त लैटिन अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्त्री।