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खारिज / महावीर सरवर

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एक भटकन सी ढोता रहता हूं
जाने कहां-कहां
परत-दर-परत अपने अंदर तकलीफे कुरेदता हुआ।

आसान नहीं झूठी संतुष्टि का मुखौटा ओढ़े
निर्वाक चलते रहना
अपनी योग्यताओं को भाग्य और विडम्बनाओं
के हवाले से
लुटेरों की अदालत में अपराधी स्वीकार कर लेना।

सुख चाकर है अयोग्य और बदनीयतों के
दरवाजे पर और मुझे आते-जाते देखकर
बेशर्मी से खींसे निपोरता है।

अलमस्त दोपहर में गुनगुनी बालकनी पर
ऐश्वर्य बकबकी जम्हाइयां लेता है
और नीचे सड़क पर मैं घसीटता हूं खुद को
एक अनवरत जिहाद की टूटी चप्पलें फटकारता हुआ
और बड़बोला घोषित कर दिया जाता हूं।

चारों ओर से घिरा हूं
न समझने वाले लोगों से
और हर एक की तर्जनी फेंकती है
मेरी ओर असम्बद्ध से सवाल
हर कोई है मेरी आंखें कोंचने को तैयार।

कितना कठिन है हरदम शालीनता के वेश में
ओढ़ लेना एक नजरअंदाजी मानसिकता
कितना जरूरी है दुम हिलाने के बजाय भौंकना!
मुझे ही क्यों घेरता है यह सब
एक अवैध सम्बन्ध की तरह?
बचे-खुचे एकान्त में
थरथराता, किचकिचाता हुआ
आकर खड़ा हो जाता है
निःशब्द ध्वस्त करने को मुझे।

फिर भी
आंखे शिद्दत से सहेज रही है
सूखते से कुछ भविष्यशील सपने-
और इस तकलीफ के वृत्त के बाहर
शर्मा जी सक्सेना जी हिनहिनाते हैं
अचक्कों की तरह मुंह में पान पपोलते हैं
और उत्सवी दिनों का टाइम टेबल बनाते हैं

सब हैरान है
उचक्कों की बारात में
मैं क्यों शामिल नहीं हो सकता।