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विमाता के लिए दो कविताएँ / श्याम सुशील

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1.
एक दिन
जब हमारा जीवन
हो गया था बिना छप्पर-थूनी
तुम आयी थी
हमारी नन्ही सी दुनिया में
घोंसला बनकर

तुम आयी थी तब
हम पक्षियों ने
नहीं जाना था उड़ना।

टुकुर टुकुर ताकते थे हम तुम्हें
अपने भीतर के समूचे भय के साथ

-कि तुमने हमें छुआ:
हम उड़ने के काबिल हुए
-तुमने हमें सहलाया
हम लायक हुए
हर विपदा से जूझने के।

-तुमने हमें शाबाश कहा:
हमारी पीठ
और पोढ़ हुई।

इस तरह
हम असहाय पक्षियों का जीवन
तुमने अपना हाड़-मांस गलाकर
आबाद किया...
मां
क्या पता था एक दिन
हमें ही तुम्हारा घोंसला उजाड़कर
कहीं उड़ जाना होगा!

2.

हम फिर लौटेंगे

बनाना तुम सरसों और बथुए का साग
मकई कीरोटी साथ में
चटनी आंवले की

खिचें चले आयेंगे हम।

खानाबदोश जीवन ही ऐसा है
क्या कहें कहां-कहां भटेगेंगे
सीने में दर्द लिए दुनिय का
टूट-बिखर जायेंगे।

आयेंगे
अपने थके दिनों की ऊब को
तुम्हारे स्नेह की माटी में
दफनाने को

हम आयेंगे।