भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भगवान / देवेंद्रकुमार

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:52, 21 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=देवेंद्रकुमार |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आधी रात के बाद
काम से लौटते हुए
रमिया ने देखा था
भगवान को-
खंडहर दीवार का आला
कुछ धब्बे
रहे होंगे सिंदूरी कभी
मरी हुई पंखुरियां
अतीत प्रतिष्ठा की स्मृति।

ठिठक गई
आंचल से बुहारा
पोंछा-पुचकारा
सिर टिकाए रोती रही
देर तक-
क्या कहे
किस टूटे विश्वास की याद दिलाए!
चढ़ाया अश्रु-अर्ध्य
टटोला
जैसे बरसों बाद फिरे बेटे को
मां देखे-भाले
छू-चूमकर
अपनी थाती संभाले।

बतियाते रहे दोनों देर तक
‘क्यों ऐसे हो गए भगवान!’
किसी को कुछ न दे पाने का
दंड पा रहे हो
तुम तो
मेरी तरह हुए जा रहे हो।