आज सब ऊँचाइयाँ मगरूर हैं / सत्यप्रकाश बेकरार
मैं न कोई गीत गाना चाहता हूं
और न कोई शब्द का जादू जगाना चाहता हूं
किसलिए वर्णन करूं सौन्दर्य का
सुविधाभोगी कामियों के समने
मैं कवि हूं, नारी-विक्रेता नहीं हूं।
सत्यम् पुराना जर्जरित है
सुन्दरम् पर चिपकी हुई है
मूल्य-सूचक पट्टियां
गंदगी के इस घिनौने ढेर में
अब क्या शिवम् है!
जहर पीकर मैं तुम्हें अमृत नहीं दूंगा
तुम मुझे बंदी बनाकर
मंदिरों में कैद कर दोगे।
मैं न बनना चाहता हूं देवता
और न पैगम्बर कहाना चाहता हूं
मैं तो बस इंसान रहना चाहता हूं
और जीना चाहता हूं।
आज सब ऊंचाइयां मगरूर है
एक झूठे से नशे में चूर हैं
रोशनी को रोक लेती हैं वहीं ऊपर कहीं
यहां नीचे तो बड़ा ही घुप्प अंधेरा है
सभी मजबूर हैं!
क्या इन नीचाइयों को ज्ञात है
ऊंचाइयों की नींव का पत्थर हैं ये-आधार है,
और जब कभी आधार में हलचल हुई है
ऊंचाइयां डरने लगी हैं
टूटकर गिरने लगी हैं
मैं आज ऐसा गीत गाना चाहता हूं
जिसको सुनकर के जरा आधार झूमे,
तड़प जाए
और जरा करवट बदल ले।