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धृतराष्ट्र-विलाप / रमापति चौधरी

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कहथि विलखि रुकि रुकि संजय सँ
नृप धृतराष्ट्र महाने,
कौरव नाश विजय पाण्डव सँ
छी नहि मुदित सुजाने॥1॥


सुनु संजय ! मतिमान अहाँ छी सब तरहेँ सुज्ञानी
आगू दोष दियSजनि हमरा कयलन्हि वंशक हानि॥2॥

अपन पुत्र ओ पाण्डु पुत्र विच भेद न कहियो मानल
केवल कौखन कुहठ देखिकेँ पुत्रक हठ हम मानल॥3॥

कहियो हम इच्छुक नहि भेलहुँ आपस युद्ध विनाशक
आन्हर छी, आन्हर भय गेलहुँ पाबि मोह संतानक॥4॥

दुरमतिया दुर्योधन केँ हम कयबेरि कते बुझौलहुँ
काल विवश ओ ध्यान न देलक उनटे दोषी भेलहुँ॥5॥

राजसूय यज्ञक सामग्री ओ विन्यास अलौकिक
अनुपम भवनक अनुपम शोभा छल अद्भुत ओ मौलिक॥6॥

दुर्योधन देखक इच्छा सँ घुमइत ओम्हर गेला
अनुचित सुनि उपहास द्रौपदिक, भीमक क्रोधित भेला॥7॥

बन्धुत्कर्ष अपकर्ष अपन बुझि भेल अमर्षक कारण
तर्क वितर्क बहुत कयला पर कयलनि द्यूतक धारण॥8॥

आद्योपान्त कहैछी घटना जे जे दुहुविच भेले
विजय आस हम ताही क्रम सँ छोड़यित गेलहुँ सकले॥9॥