भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भारती पुकारै छै / धीरज पंडित
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:08, 29 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धीरज पंडित |अनुवादक= |संग्रह=अंग प...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ऐही ठांव छेलै एक गाँव भैइया
देखै नय छी होकरोॅ नाम भैइया।
जौनी गामो रोॅ सबटा लोग मिली
हमरा लेॅ दै छेलै भोग-बली।
कौनेॅ लेलकै हरी ऐकरोॅ फूल-कली
झुकलोॅ सिर दीखै हरेक ठाँव-भैइया। देखै नय छी
होॅव फूलोॅ रोॅ कौनेॅ बात करै
यहाँ चोरो से दिन आरू रात डरै।
होकरै पत्ता मेॅ भात धरै
बोलै नय कोय चूँ से चाँव भैइया। देखै नय छी
जौ हमरा स तोरा मतलब छौ
हमरोॅ अचरा भी भींगलोॅ छौ।
होकरा जगावो जे मातलोॅ छौ
प्रेम नगरी मेॅ राखी केॅ पांव भैइया। देखै नय छी