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मौसम / कर्मानंद आर्य

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आग धधकती है पेड़ की टहनियों पर
जलते हैं घोसले
आधी रात तक सुनाई देता है अरण्यरोदन
हंसी जलती है, ख्वाब जलते हैं
इच्छायें भग्न होती हैं
दग्ध होती हैं कामनाएं
तुम असमय जल जाते हो
यह अनोखा मेला है
श्रेष्ठता का हुनर जाने कहाँ से आता है

नदी का पानी अनवरत गुजर जाता है
अपनी कगार से होकर
तुम प्यास का समझौता नहीं कर पाते

भय ऐसे ही जाता है, प्रतिक्रिया के बाद
क्या मिला क्रोध से लड़कर
आसमान से मदद ऐसे थोड़े ही मिलती है

अभी जिन्दा है प्रेम जड़ों में
साहस तुम्हारी लताओं में कैद

जरा सोचो
जंगल के जंगल ऐसे ही तो जल जाते हैं
काले लोगों की शक्ल में

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