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श्मशान बाजार / कर्मानंद आर्य

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कोई न कोई खरीद रहा होगा
कोई न कोई बेच रहा होगा
किसी हरवाहे की मूंठ

कहीं न कहीं जल रही होगी
सखुए की हरी पत्तियां
कोई न कोई पका रहा होगा
चिता पर चावल

यह देश है जिसमें रहते हैं
बहुत सारे लोग
सिर्फ छब्बीस रूपये के मुवावजे में मरते हुए

बहुत सारे लोग जो निकल पड़ते हैं
मौत की तलाश में
बिना बीमा सत्ताईसवीं मंजिल पर
जिनके पावों में शनीचर
दिनरात भागता है

यह एक बाजार है
जहाँ हर गरीब की कीमत तय है
कोई एक है जो मंत्र पढ़ रहा है
कोई एक जो जला रहा है काया

एक कोई और जो देख रहा है
भूख और आग को जलते हुए

यह बाजार है यहाँ कम से कम
मरने की बाते नहीं हो सकती
बस हरवाहे की मूठ
काठ की जगह लोहे की हो जाए