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बंत सिंह / कर्मानंद आर्य

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1.

बेटी ने आबरू खो दी
छाती पर कोयला सुलगाया ‘शरीफों’ ने
जालिम बुरा होता है
जुल्म सहने वाला और बुरा होता है

बेटी ने आबरू खो दी
यह सिर्फ अखबार की पंक्तियाँ नहीं है
साक्षात मौत है
सभ्यता के मुहाने पर खड़े मनुष्य की
धरती की आखिरी चीख
मरुथल की आखिरी प्यास
आँखों की आखिरी नमी
सब सूख चुका है जैसे

बलात्कृत हुई थी पांच नदियों की जमीन
उस लड़की के साथ
सतलुज, व्यास का रेतीला पथ सूख गया था
रावी एक जगह
झेलम एक जगह
चिनाव दूसरी जगह बार-बार हो रही थी हवस का शिकार

पञ्च प्यारे चीखते थे
मेरा पंजाब लौटा दो
बख्श दो हमारी बेटियों को
उनके आँचल में शूल नहीं फूल ही फूल हैं

2.

नदियाँ मर जाती हैं
भले संसार में
चुप रहते हैं मनसबदार
उनका पानी बाजार में तैरता है
टपकता है नसों में

3.

मर जाते हैं लोग
जिनकी छाती पर रखा हुआ कोयला दहकता है
खून की एक धार धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक
जज्ब होती रहती है
लोथड़े में तब्दील हो जाती है स्त्री योनि
चिता की आग बन जाती हैं बेटियाँ
एक बाप लड़ता है
कटे हुए पैरों को निहारता है बार बार
खून की धार धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक
जज्ब होती रहती है
बंत सिंह लड़ता है
बिखरे हुए खून के धब्बों के लिए गाता है गीत
बेटी की चिता को लेकर घूमता है अपने गीतों में
सुनाता है अपना राग
बचपन के उन लाल सिंदूरी कदमों को सहलाता है
पिता के कई क़दमों में
एक कदम उसका भी था
जिसे दबंगों ने राख बनाकर छोड़ दिया

(बंत सिंह पंजाब का एक दलित सिख जिसे अपनी बेटी के बलात्कार के प्रतिरोध के कारण सवर्णों ने हाथ पैर काट दिया जो आज भी अपनी न्याय के लिए गीत गाता है)