भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अगली पीढ़ी लड़की / कर्मानंद आर्य

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:25, 30 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कर्मानंद आर्य |अनुवादक= |संग्रह=अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारी कोई ब्रांच नहीं है
हमारी कोई सीरीज नहीं है
हमारी कोई श्रृंखला नहीं है
हम इस दुनिया में बिलकुल अकेली हैं
हमसे मिलना तुम
हम लड़ती हैं तो समूह नहीं बनाती
हम दौड़ती हैं तो समूह नहीं बनाती
हम काम करती हैं तो समूह नहीं बनाती
हम असंगठित मजदूर हैं
सभाभवन की
जहाँ दहाड़ती हैं राजा की आवाजें
मुखविर हैं काली मूछें
हम चुहियायें हैं व्यवस्था की
हम अठारह से चौबीस हैं
हमारी किताब की गिनती ख़त्म हो जाती है चालीस बाद
लोगों को पसंद नहीं आते हमारे सूखे स्तन
जैसे चंद्रमा उतरता है
काली अँधेरी नदी में वैसे ही उतर जाती हैं हम
वैसे उतरती है हमारी उम्र
हम सेब नहीं रह जातीं
हम अनार नहीं रह जातीं
हम कटहल हो जाती हैं भाषा में
हमें खाती जाती है हमारी चिंता
सुनो बाबू!
ये जो तुम रात भर खेलते हो हमारे साथ लुकाछिपी
करते हो मर्यादा तार-तार
बनाते हो पतनशील
पत्नी और वेश्या को एक साथ मिला लेने का करते हो स्वांग
प्रेमिकाओं के तलछट पर रगड़ते हो माथा
यही वे करने लगें
तब बताओ क्या कहोगे तुम
क्या करोगे तुम जब बगावत की वेदी पर डाल दें वे
गंदी सोच का कूड़ा
जो पतनशील हैं
वे ज्वलनशील हो गई हैं इन दिनों
वही व्यवस्था की जंजीर तोड़कर
जी रहीं हैं काठ का जीवन

हम वही हैं हमारी कोई ब्रांच नहीं है
नहीं है हमारा संघ
नहीं है हमारी शाखा!!