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547 / हीर / वारिस शाह
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अधी रात रांझे परी याद कीता तुरा<ref>पगड़ी का तुर्रा</ref> खिजर दा हथ लै बोलया ए
शकरगंज दा पकड़रूमाल चुमे अते मुंदरी शहबाज दा तोलया ए
खंजर कंढ मखदूम<ref>एक सूफी संत</ref> जहानिए दा विचों रूह रंझेटे दा डोलया ए
पीर बहावदीन जिकरिए धमक दिती कंध डाह के राह नूं खोलया ए
खूंडी सयद जलाल बुखारिए दी विचों अतर ते मुशक नूं झोलया ए
जाह बैठा ए कासनूं उठ जटा एवा नहीं तेरा राह खोलया ए
वारस शाह पछोतावे बंदगी नूं अजराईल<ref>मौत का फरिश्ता</ref> जद धौन चढ़ बोलया ए
शब्दार्थ
<references/>