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578 / हीर / वारिस शाह

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जाये माहियां पिंड विच जाये किहा नढी हीर नूं चाक लियाया जे
दाढ़ी खेड़यां दी सभ मुन सुटी पानी इक चुली नहीं लाया जे
सयालां आखया परहां ना जान किते जाके नढड़ी नूं घरी लियाया जे
आखो रांझे नूं जंझ बना लिआवे नढी हीर नूं डोलड़ी पाया जे
जो कुझ हैन नसीब सो दाज दीजे साथों तुसीं भी चा लजाया जे
उधर हीर ते रांझे नूं लै चले इधर खेडयां दा नाई आया जे
सयालां आखया खेड़यां नाल साडे कोई खैर ना पुछणा पाया जे
हीर व्याह दिती मोई गई साथों मुंह धी दा नाही वखायाजे
ओवें मोड़ के नाई नूं टोर दिता, मुड़ फेर न असां थे आया जे
वारस तुसां ते ओह उमीद आही डंडा सुथरयां वांग वजाया जे

शब्दार्थ
<references/>