भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात होलोॅ लम्बा छै / राजकुमार
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:50, 5 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजकुमार |अनुवादक= |संग्रह=टेसू क...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रात होलोॅ लम्बा छै, दिन छै होलोॅ छोटोॅ
जिनगी के सड़िया में, असरा रोॅ गोटोॅ
आँखी तर झामर छै, असमानो सामर छै
धूरा-धूरा उठलोॅ, बिमछैलोॅ बामर छै
देहरी रोॅ दीया, अब चढ़लै परकोटोॅ
जिनगी के सड़िया में, असरा रोॅ गोटोॅ
औंगरी पर गुनी-गुनी, रुइया केॅ तूनै छी
सोचोॅ के सीयै ली, सुइया के चूनै छी
हँसतै धरती हमरोॅ, नै रहतै खोंटोॅ
जिनगी के सड़िया में, असरा रोॅ गोटोॅ
टूटलोॅ देबाली सें, आर-पार झाँकै छी
किरणोॅ के बीया ले, सुरुजोॅ के ताकै छी
बिछलोॅ छी बीछै ली, खेतोॅ से टोटोॅ
जिनगी के सड़िया में, असरा रोॅ गोटोॅ
काटै छी रात कठिन, पाबै छी घातोॅ के
जगले छी ढिबरी रं, लाबै ली प्रातोॅ के
नै दबतै रसरी सें, बछिया के ठोठोॅ
जिनगी के सड़िया में, असरा रोॅ गोटोॅ