भाग 1 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि
मंगलाचरण
मेघ बरन तन रतन-गन, चंद्रभाल भुज चारि।
प्रनपाली द्याली सदा, श्री काली रिझवारि॥1॥
तिन पद-पंकज कों करत, बहु बंदन कवि ग्वाल।
रचि हमीरहठ दीजिये, हे हरि दीनदयाल॥2॥
कवित्त
परम प्रतापी राजै तखत दिल्ली के गत
गौरिया अलाउद्दीन बादसाह नाम है।
ताकै बाहु बेगम रहत सदा बे-गम वे,
दम-दम जिनको बढ़ै प्रकास-धाम है।
पास ही दिल्ली के खास नाग-बनबास हुतौ,
तामैं बहु बास करैं मृगादि मुदाम हैं।
तामें कछु दूर लौं कनात कीमखावन की,
दीनी घिरवाय चहुँ ओर सरे साम हैं॥3॥
प्रात ही पधारे बादसाह संग बेगम लै,
वासते सिकार के कनातन के अंदरै।
तुरी पै सवार हार मोतिन के धारि-धारि,
बिदित बहार पूर प्यार में खुसी करैं।
चंदबदनी हैं किती, कंजबदनी हैं किती
चंद ते सिचंद किती कंज-भंज को करैं।
केती कर बान लिये, केती कर साँग लिये
केती असि पानि लिये, करति कलावरैं॥4॥
छन्द
किती सुर्ख सूतन दुपट्टे सुरंग,
किती सब्ज चोली अमोली सुरंग।
किते घाघरे हैं बसंती बने,
जमुर्रद के जिनमें हैं फोंदा घने॥5॥
किती तास की ओढ़ चादर चलीं,
लगीं मोतियों से किनारी भलीं।
किती आसमानी, किती नील रंग,
किती सोसनी हैं किती गुलफिरंग॥6॥
किती केसरानी किती बैजनी,
किती चंपई हैं सुगंधै सनी।
किती है गुलेनार आबी घनी
किती है हवासी ‘रु केती बनी॥7॥
किती धारि बुरका चलीं जालदार,
अदा आप-अपनी से साजे सिँगार।
कोई सीस ढाँके जड़ा सीसफूल,
गुँथी है किसी के बारन में फूल॥8॥
कोई दोलरी चौलरी पचलरी,
सँवारै कोई आपनी सतलरी।
कोई बाजूबंदन को कसती हुई,
हर इक आप-आपस में हँसती हुई॥9॥
कोई मोतियों से लदी सरबसर,
हाथों में हीरों के कड़े बेसतर।
कोई पायजेबों को झनकारती,
कोई छंद छल्लों को छनकारती॥10॥