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भाग 20 / हम्मीर हठ / ग्वाल कवि

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दोहा

जाजा बड़गुज्जर सुभट, बाही तेग अपार।
हने हिये कड़कै सुपल, रुधिर डोल पै धार॥205॥

रूपघनाक्षरी

काढ़ि तेग कटि ते सुभट जोर जाजा जब,
जोति की जमातें जहाँ झलकत झुक्क-झुक्क।
ताकत ही तुरक मुरक भजैं पाछै केते,
आगे को सिधाये ते चबाय ढार ढुक्क-ढुक्क।
‘ग्वाल’ कवि कहत न मानै ढाल बखतर,
तुरक सयाने पै अयाने जिती रुक्क-रुक्क।
सीस गजराजन के गरब-गरूर-भरे,
फरकैं धरा पै, धरा धरकत धुक्क-धुक्क॥206॥

छन्द

जुटे एक सों एक जोधा घने हैं।
पिता पुत्र को भी करै ना मनै हैं॥
छयौ धूम नभ में न दीसै कछू है।
परी धूम सब मैं नृपति कोप धू्र है॥207॥

चले जायें आगे बढे बीर नृप के।
हटे जायें पाछे तुरक वे डरप के॥
करै आह अलग खुदा औ’ रहीमं।
करी काल पै बादसा ने मुहीमं॥208॥

छन्द

कहुँ घुरत ढोल बज्जत सुबंब।
कहुँ नचत भूत प्रेतों के रंब॥
कहुँ लसत खूब लंबे निसान।
रज उड़त ऊर्ध छिप्पत सुभान॥209॥

कहुँ जगत जोति जुग्गिन जमात।
कहुँ पियत स्रोन खप्पर भरात॥
कहुँ बहत नध्ध श्रोनित प्रवाह।
कहुँ तरत रुंड मानहु सुग्राह॥210॥

कहुँ चुनत रुद्र मुंडन बिसाल।
मन मुदित होइ रचते सुमाल॥
बहु गिद्ध-स्वान-कउवा-कुलंग।
भख लेत टूक लुथ्थन सु अंग॥211॥