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खंड-खंड ज़िन्दगी / मंजुश्री गुप्ता

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खंड-खंड ज़िन्दगी
टुकड़ा टुकड़ा मैं!
ज़िन्दगी का
एक सिरा सँभालने की
कोशिश करती हूँ
तो दूसरा छूट
जाता है...
घर-परिवार
पति-बच्चे
सास-ससुर
नाते-रिश्तेदार
ऑफिस-बॉस
ऊपर से तीज-त्यौहार
सुनती हो... मम्मी... बहू...
की हमेशा लगती रहती है गुहार
और ऑफिस में अक्सर
बॉस की पड़ती है फटकार
इन सबके बीच
'मैं' गुम हो जाती हूँ
कोई नहीं पूछता
अरे सुपर वुमन!
कहीं तुम भी तो नहीं हो बीमार?
खंड-खंड ज़िन्दगी
टुकड़ा टुकड़ा मैं
ज़िन्दगी का
एक सिरा सँभालने की
कोशिश करती हूँ
तो दूसरा छूट
जाता है...