Last modified on 22 अप्रैल 2017, at 14:34

गाँव: एक चित्र / कुमार कृष्ण

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:34, 22 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=गाँ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

यहाँ दिन
थन के स्पर्श से आरम्भ होकर
इसी स्पर्श पर
होता है समाप्त
आवाज़ लगाकर आता है
कमरे के अन्दर
पशुओं के गले से
रँभाता हुआ समय।

स्कूली बच्चे
उठाये शहर का गणित
देश का इतिहास
जीते रहे रोज
सिसिफस का मिथक
दौड़ाते कच्ची तख्तियों पर
दादा की लाडली नदियाँ
रटते दिन भर
संविधान, आज़ादी, शिष्टाचार की बातें
ले आते बस्तों में भरकर
सुअरगन्धी गालियाँ
वर्षों से जिसे सुनते आये
भूमि जोतते बैल।

नहीं जानता परमानन्द
स्कूली तौर-तरीके
फर्क नहीं कोई उसके लिए
नेता और डंगर के मरने में।

पीटता हुआ वक़्त को
गीले चमड़े की तरह
डंगरों की गन्ध से आदमी की
करता है पहचान परमानन्द
समय को पीटना है जिसका पेशा
जो जानता है
गाँव के सारे मवेशी
मरते हैं ओबरों में
अस्पतालों में नहीं।