भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बचपन / बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा ‘बिन्दु’

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:54, 22 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा 'बिन्दु'...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिसका सींचा था बचपन किया प्यार जीवन के मन में
उसका भी अब क्या कहना कितना मंहगा है ये धन में।
दोपहरी के धूप में छाया तेरे लिए था सब कुछ लाया
दूध-मलाई माखन मिश्री ले आता था एक ही छन में।
रोते थे तो मैं भी रोता सो जाते थे तो मैं भी सोता
जागते तो मैं था हाजिर सब कुछ भूला इसी लगन में।
लोरी गा-गाकर बहलाया रोज सबेरे तुमको नहलाया
अपनी फिकर छोडके तुमको रहने लगा इसी मगन में।
मॉ बनके जब चलना आया तोतली सी बोली मन भाया
क्षन में अंदर क्षन में बाहर चैन नहीं थोडा भी तन में।
मुन्ना अब लगा था पढ़ने रोज पर रोज लगा था बढने
मीठी बोली सिखला करके रखते थे जैसे मधुवन में।
लंदन भेज दिये पढने को मोटर कार दिये चढ़ने को
जब वो वापस घर में आया विष भरा था उसके फन में।
अब वह कहता हू आर यू तब मैं समझा इसका भ्यू
जान गये अब होना क्या है सोचने लगे अब अपने मन में।
जिसको सींचा था बचपन में प्यार किया जीवन के मन में
उसका भी अब क्या कहना कितना मंहगा है ये धन में।