आज फिर मुझको अकेला / देवेन्द्र कुमार

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झर गए पत्ते
आज फिर मुझको अकेला
कर गए पत्ते।

एक टहनी सूखकर काँटा हुई
अभी तक क्या थी, और —
अब क्या हुई !
ज़िन्दगी के
आर-पार
बिखर गए पत्ते।

इक्का-दुक्का
रह गई हैं पत्तियाँ
मुँह पर जैसे भिनभिनाती
मक्खियाँ
आग को पाकर अचानक
बर गए पत्ते।

अफनती नदियाँ
सुलगते साल वन
सोच में डूभा हुआ काला हिरन
क्या, कहा कि —
अन्धेरे से
डर गए पत्ते।

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