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महाकाव्य के बिना / कुमार कृष्ण
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शीर्षक मित्र कवि लीलाधर जगूड़ी से यह शब्द इस कविता के लिए उधार लिया गया है
लाखों-करोड़ों वार सहकर भी
भरती रही वह हर बार
कलम की भूखी चोंच का मुँह
छोटे से दवात में छुपी
कपड़े की नन्ही लीर
हम पढ़ते रहे महाभारत
रटते रहे रामायण
करते रहे याद रामचरितमानस की चौपाइयाँ
एक बार भी नहीं सोचा हमने
लीर और कलम के रिश्ते के बारे में
कितनी पीड़ा सहकर पहुँची होगी
कलम की चोंच में छुप कर
काग़ज़ के पृष्ठों तक लीर की तकलीफ़
भूल चुके हैं हम-
लीर और कलम के दर्द में शामिल होकर ही
लिखा जा सकता है कोई महाकाव्य
छोटी चिन्ताएँ खिल सकती हैं बस
छोटी कविताएँ बन कर
मेरे मित्र! सही कहा था तुमने
गुज़र जाएगी यह सदी महाकाव्य के बिना।