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औरत और तवे की गुफ़्तगू / कुमार कृष्ण

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बहुत बार सोचता हूँ-
सदियों पुराना है औरत और तवे का रिश्ता
दोनों बने हैं शायद एक दूसरे के लिए
गुज़र जाता है आग से लड़ते-लड़ते ही
दोनों का पूरा जीवन

रोटियाँ तवे पर डालने से पहले
औरत करती है याचना-,
जैसे भी हो बचा लेना मेरी अँगुलियाँ
मैं पोंछ सकूँ अपने और बच्चों के आँसू
डाल सकूँ माँग में चुटकी भर सिन्दूर
सजा सकूँ हथेलियों पर मेहँदी के फूल
खिला सकूँ चिड़ियों को चावल
उकेर सकूँ बच्चों की तख़्ती पर वर्णमाला के अक्षर
सिखा सकूँ अपने दूध पीते बच्चे को
अँगुली पकड़ कर चलना

तवा सुनता है उसकी दर्द भरी आवाज़
कहता है धीरे से-
मेरी तो नियति ही है तपना और तपाना
बन चुका है मेरा शौक आग से खेलना
बँट रहे थे जब इस धरती पर तमाम तरह के काम
सुन लिया मैंने भी ग़लती से उस गुफ़्तगू को
उसी दिन जान गया मैं
तुम्हारे साथ होने वाली साजिश का सच
नहीं जलतीं तुम्हारी ख़ूबसूरत अँगुलियाँ
गर एक भी औरत हुई होती शामिल
उस दिन की बैठक में
वह तो पुरुषों की सभा थी
क़ायदे-कानून बनाने वालों की सभा
उनको तुम्हारी अँगुलियाँ नहीं मुस्कान चाहिए
तुम्हारी थकान नहीं बस काम चाहिए
मैं तुम्हें देता हूँ एक बीज मन्त्र-
तुम्हारी मुक्ति राम में नहीं लगाम तोड़ने में है
वह मन्दिर की घंटियाँ बजाने में नहीं
कन्धे से कन्धा मिलाने में है
बहुत जी चुकी तुम दिल से
अब दिल और दिमाग़ दोनों से जीना सीखो।