भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमला / कुमार कृष्ण

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:37, 24 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=इस भ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहुँच चुके हैं बेशुमार लोग
बड़ी-बड़ी झोलियों के साथ
गाँव-गाँव तक
जीभ और दातुन के रिश्ते को मिटाने
बाँट रहे हैं दिन-रात
तरह-तरह के दन्त-मंजन
आधी-पौनी कीमत में
उनके पास हैं तरह-तरह के जादुई साबुन
ख़ुशबूदार तेलों की शीशियाँ
एक रात में बदल देते हैं चमड़ी का रंग
वे आये हैं गोरों के देश से
पूरी दुनिया को गोरा बनाने
सत्तू खाते-खाते लगाती है माँ ज़ोर से आवाज़-
रुको, मुझे भी खरीदना है जादुई साबुन
शायद हो जाए उसकी साँवली बेटी का रिश्ता
किसी गोरे आदमी के साथ
माँ समझती है-
आये हैं सतयुग के लोग
वही दे सकते हैं एक ख़रीद पर दो मुफ़्त में
दोस्तो-
कितना सुन्दर, कितना अद्भुत
कितना लुभावना, कितना आकर्षक
कितना म्युजीकल, कितना खामोश
कितना हँसमुख, कितना खतरनाक है यह बाज़ार का हमला
सोचता हूँ जब आएँगी बड़ी-बड़ी चीज़ें
तब बच पाएगा कैसे-
रघुवीर सहाय का दयाशंकर, जगूड़ी का बलदेव खटिक
ऋतुराज का हसरूद्दीन, कुमार कृष्ण का छेरिंग दोरजे
ज्ञानेन्द्रपति का रामखेलावन, राजेश जोशी का रमजान मियाँ
मुश्किल बहुत मुश्किल है-
प्रेमचन्द के हल्कू का बच पाना
जब तमाम खेत बदल जाएँगे शॉपिंग माल में
तब कहाँ बनाएगा हल्कू अपना छोटा सा मचान।