रसलक्षण (दोहा)
जहँ विभाव अनुभाव अरु, सात्विक औ’ संचारि।
ये मिलि थिति कों पूरहीं, सो रस कवि उचारि॥1॥
चिदानंद घन ब्रह्म सम, रस है श्रुति परमान।
दुबिधि सुरस लौकिक जु इक, दुतिय अलौकिक जान॥2॥
रस जु अलौकिक है त्रिधा, स्वाप्निक एक विचार।
मानोरथिक सु जानिये, औपनयनि निरधार॥3॥
औपनयिक जो रस लिख्यो, सो नौ बिधि मति धीर।
कह श्रंगार जु हाँस अरु, करुना रौद्र जु वीर॥4॥
फेरि भयानक भाखिकै, बीभत्स जु बरनात।
अदभुत यों ये आठ रस, बरनत नाट्य दिखात॥5॥
सांत सु नवमो काव्य कर, कहत काव्य के माँहि।
इनमें तें श्रंगार रस, कहत प्रथम चित चाहि॥6॥
शृंगार पद का अक्षरार्थ
मुख्य बिषै है श्रंग पद, समन्तात आकार।
पुनि रकार कहि मदन कों, अक्षरार्थ सुविचार॥7॥
श्रंग आर की संधि करि, कहि शृंगार सुचाँहि।
है जु मुख्यता भलिय बिधि, मदन की जु जिहि माँहि॥8॥
शृंगार रस लक्षण
नायका सु नायक दुहूँ आलंबन जु बिभाव।
ताते रति को उपजिबो, सो थाई बरनाव॥9॥
सो थाई को दीप्त करि, पूरन करै अछेह।
ललचोंही दृष्ट्यादि बहु, है अनुभाव सनेह॥10॥
औत्सुक्य संका हरख, आदि बहुत व्यभिचारी।
यों सिंगार रस स्याम रंग, स्याम प्रभू उर धारि॥11॥
आलंबन प्रथमहि कह्यो, सो है रस को हेतु।
यातें बरनों नायका, पुनि नायक बुधि केतु॥12॥
आश्रय आलंबन कहैं, नायकान को सर्व।
विषयालंबन कहत हैं, नायक कों बुधि गर्व॥13॥
नायिका लक्षण
रूपवती हूँ लखि लुभैं, अति प्रबीन गुन खान।
बहुत जायका दायका, वहै नायका जान॥14॥
यथा (कवित्त)
नागन की, नरन की, गंधर्वन-देवन की,
सुंदरी सकल जाहि देखि सरमाती हैं।
परिन की पंगतें पसरि आवैं वेहू पेखि,
नैनन नवाती मनै मनु खिसियाती हैं।
‘ग्वाल’ कवि चातुरी गिरा ने भरी घरी-घरी,
खरी-खरी जुवति-जमातें जग आती हैं।
हौं न भई, हौं न भई, तप करि याकों पति,
कंजमुखी चंदमुखी ऐसे पछिताती हैं॥15॥
दोहा
लक्षन की प्राधान्यता, श्रीराधा में माँहि।
गौन पक्ष में जग विषै, और नायका आँहि॥16॥
होत नायका प्रथम ही, जातिभेद करि चार।
पदमिनि चित्रिनि संखिनी, हस्तिनि फेर उचार॥17॥
पद्मिनी लक्षण
पट भूषन भोजन सुमन, सित रुचि चंपक बर्न।
कमल गंध तन, अलि भ्रमैं, पदमिनि ऐसे बर्न॥18॥
यथा (कवित्त)
दूरि तें दिखाऊँ, कैसे लाऊँ इहाँ, कैसे कान्ह,
राति में जो जाऊँ पूनौं ससि सी सजी रहै।
दूजै सुनो और लदी, मोतिन तें, हीरन तें,
जाकी चकाचौंध लखि बिज्जु हू लजी रहै।
‘ग्वाल’ कवि छाति पै निकसि आवै दिन में तौ,
तन तें सरोज की सुगंधी उपजी रहै।
दौर-दौर आवें ठौर-ठौर तें सु झौर-झौर,
गुंजरत भौंर भय भौंन में भजी रहै॥19॥
चित्रिणी लक्षण (दोहा)
चित्रिनि अरुन निचोल गृह, भूषन असन रु’ चित्र।
कृस तन, बैन चकोर-से, चपल चित्रिनी मित्र॥20॥
यथा (कवित्त)
भले चींत राखै चीर, भूषन ये लाल-लाल,
बाल, बाल तें जु तेरो सौख ही निराला है।
तब लों सिंगार ये न होंयगे सफल तेरे,
जब लों पियगी नाँहि प्रेम-रस-प्याला है।
‘ग्वाल’ कवि यातें चलि मिलि मनमोहन सों,
तेरे लिये कियो उन कौतुक बिसाला है।
पूजा पाठसाला कहा, पाकसाला गऊसाला,
एक-एक आला करि राख्यो चित्रसाला है॥21॥
शंखिनी लक्षण (दोहा)
बड़े अंग, खर से सबद, भूषन-पट रुचि नील।
घनी ईरखा मलिन चित, संखिनि नित रिस-सील॥22॥
यथा (कवित्त)
नीलम के भूषन बसन-बेस सोसनी ये
साजौ करै सखी तेरे सौख अनुकूल सों।
तौऊ उनतें तू लरै, अरै नित पति हू सों,
गाम हू की ग्वालिन तें, बोल्यो करै सूल सों।
‘ग्वाल’ कवि परम परोसिन सों रूँसी रहै,
बसी रहै बास में हू सो रहै अतूल सों।
कीयो तें कुजस सब ही सों बोलि करकस,
रोस यह तेरी है अमरबेल मूल सों॥23॥
हस्तिनी लक्षण (दोहा)
ऊँची गति, तन पुष्टता, हथिनी सो रब जान।
भूषन पट रुचि अरुन सों, हस्तिनि ताहि बखान॥24॥
यथा (कवित्त)
सौति नई आइबे को दुख जो हुतो सो हुतो,
याको हाल तोसों अलि कहत हों आज मैं।
भूषन-बसन माँगै लाल ही सों, दै-दै दऊँ,
और नयो दुख, ताको करौं का इलाज मैं।
‘ग्वाल’ कवि आय-आय पास की लुगाई पूछैं,
बोलै को चिंघारत-सी तेरे या समाज में।
कौंन को जताऊँ, औ’ न कौन को जताऊँ दैया,
कैसे बहराऊँ मैं तो डूबी जात लाज में॥25॥
(दोहा)
गुन करि होत जु नायका, त्रिधा उत्तमा आदि।
दुतिय मध्यमा भाखिये, अधमा तृतीय अवादि॥26॥
उत्तमा लक्षण
होय नारि को अहित जो, कह्यो करै जो पीय।
तिय सत में हित ही करै, उत्तमा सु बरनीय॥27॥
यथा (कवित्त)
बालम वा बाल को बिभात आयो कैई बेर,
जावक लगाये भाल, धारे छलछंद कों।
तऊ वह गोरी पतिव्रत रंग बोरी रहै,
आदरत दैया नित ऐसे मतिमंद कों।
‘ग्वाल’ कवि कहै मैं खुसी हों खुसी रावरी में,
बावरी वे नारि, जो करैं न पी-पसंद कों।
ऐसें वह दोस-अवसोस कों न जानै आली,
रोस कों न जानै, ज्यों न जानै कुहू-चंद कों॥28॥
मध्यमा लक्षण (दोहा)
कछू सुहित कछु अहित कृत, पिय की लखि तिय जान।
रजमय इंगित सम करै, वहै मध्यमा गान॥29॥
यथा (कवित्त)
कोऊ जाय जुवती लगाय राखै बातन में,
सरल सुभाव ग्वारि, सब ही सों हुलसाय।
ताको नाह आयो भोर, जमुहाय अलसाय,
लखि उन पीठ मुरकाय ताकी तिरछय।
‘ग्वाल’ कवि बोल्यो पिय, गुरु ने बुलाय राख्यो,
ऐसो भाय पाय, गोरी भोरी गई नरमाय।
नीबी की तरफ लाल लखि, ललचाय रह्यो,
बाल हू लजाय, मुसिकाय रही अँगराय॥30॥
अधमा लक्षण (दोहा)
प्रीतम हित नित ही करै, तऊ अहित नारि।
तम गुनमय वह होत है, अधमा ताहि उचारि॥31॥
यथा (कवित्त)
परी कों न ताकै, ताकौं नरी कों न ताकै ताहि,
वाकें तुही सुंदरी समूह को निकेत है।
रंग-रंग-रंग के रँगावै बास तेरे लिये,
लावत सुमन जो सुबास को निकेत है।
‘ग्वाल’ कवि भूषन तें भूषित भलेई रखै,
तेरी बिन मरजी तो साँस हू न लेत है।
ऐसो पिय निरदोस, तू तो है कलह-कोस,
मोहि अवसोस, तेरो रोस बिन हेत है॥32॥
(दोहा)
त्रिधा नायका अंस करि, दिव्या प्रथम प्रदिव्य।
दुतिय अदिव्या जानिये, तीजी दिव्यादिव्य॥33॥
कहि पुलोमजा आदि सब, सुरी जु दिव्या होत।
दमयन्ती रान्यदि हैं, नरी अदिव्या गोत॥34॥
सीता रुक्मिनि राधिका, आदि सु दिव्यादिव्य।
साहित ग्रंथन के विषै, बरनी सुकवि प्रदिव्य॥35॥
त्रिबिध नायका कर्म करि, स्वकिया प्रथम पिछान।
परकीया पुनि जानिये, गनिका तृतीय बखान॥36॥
स्वकीया लक्षण एवं चेष्टा
परकीया गनिका जु के, धर्मन तें सुविहीन।
स्वकिया ताकों भाखिये, सुनिये सकल प्रबीन॥37॥
सत रज तम गुन तीन ये, जो जा गुन में लीन।
चेष्टा ता तिय में सबै, वाही गुन आधीन॥38॥
यथा (सवैया)
प्रात ही प्रीतम के पग छ्वै करि, सासु-जिठानिन के परै पाँइन।
छाहौं न छ्वावत है गुरु लोगन, देखौ न आनन जाको लुगाइन।
त्यों कवि ‘ग्वाल’ करै गृह-कारज, साजी रहै निज सील के भाइन।
है कुल-रीतिन की सरसाइन, पीहर-सासुर की सुखदाइन॥39॥
(दोहा)
स्वकिया हू त्रैबिधि कहत, प्रथम सु मुग्धा होत।
मध्या दुतिय बखानिये, प्रौढ़ा तृतीय उदोत॥40॥
मुग्धा लक्षण
होत अंकुरित जोबन जु, नित-नित सरसत जाय।
घटत जाय सिसुता सु त्यों, सा मुग्धा तिय गाय॥41॥
लक्षन मुग्धा केा जु यह, चित दै लेहु बिचार।
बैससंधि नहिँ प्रथग है, नाम-भेद उर धार॥42॥
यथा (कवित्त)
दौरान दरीन की, अलीन की अलीन लागी,
कटि छीन होंन लागी, चीता चित भंग की।
दिन-दिन खेल मेल सेल सी खुवन लागी,
छिन-छिन चमकन दुति लागी अंग की।
‘ग्वाल’ कवि सिसुता घटन लागी पल-पल,
लागी है बढन तरुनाई यों उमंग की।
पेंच परैं सह दे तें, गोला तें घटै ज्यों डोर,
त्यों उतै उचाई सरसात है पतंग की॥43॥
(दोहा)
मुग्धा चार प्रकार की, सुनिये नाम सुजान।
कहि अज्ञातसु जोबना, ज्ञातजोबना मान॥4॥
तृतिय नवोढ़ा भाषिकै, पुनि विश्रब्धनवोढ़।
नाम मतांतर तें दुतिय, इनके सुख-पट ओढ़॥45॥
नवलवधू नवयौवना, नवल अनंगा फेर।
पुनि सलज्जरति सहित चौ, लक्षन-लक्ष सुहेर॥46॥
अज्ञातयौवना लक्षण
जोबन के ऐबे जु को, जाकौ है नहिँ ज्ञान।
वह अज्ञात सु जोबना, जानत हैं गुन खान॥47॥
यथा (सवैया)
हेम की माल दई पहराय, मनो अँग गई मिलि भोरी।
देखी परै न तुम्हें तो कहा करौं, गोद में बालक खोजत खोरी।
यों कवि ‘ग्वाल’ कहाय दूँ कौन तें, छ्वै छतिया अपनी लखि गोरी।
छोरी नहीं, किहूँ तोरी नहीं, अजु जोरी क्यों मोहि लगावत चोरी॥48॥
ज्ञातयौवना लक्षण (दोहा)
ऐबो जो जोबन जु को, जानै तिय जिय माँहि।
ज्ञातजोबना कहत हैं, ताकों बुधिजन चाँहि॥49॥
यथा (सवैया)
दिन द्वै तें बधू यह यों है सुनो, रहे अंग अगौछि सजोहैं किये।
चपलोंहैं न पाँइ परै कितहूँ, गुडियान के खेलन जो हैं किये।
कवि ‘ग्वाल’ मिलोहैं सखी गन सों, सिसुता के सुहाँस भजोहैं किये।
उचकोंहैं उरोज तकै पट में, दृग कों तिरछोहैं लजोहैं किये॥50॥
नवोढ़ा लक्षण (दोहा)
ब्रीड़ा भय संजुक्त तिय, रति की चाह न जासु।
जोरी रति करि लेय पिय, नाम नवोढ़ा तासु॥51॥
यथा (कवित्त)
गरकि-गरकि प्रेम पारी परजंक पर,
धरकि-धरकि हिय हौल सों भभरि जात।
ढरकि-ढरकि जुग जंघन जुरन देय,
तरकि-तरकि बंद, कंचुकी के करि जात।
‘ग्वाल’ कवि अरकि-अरकि पिय थामें तऊ,
थरकि-थरकि अंग पारे लों बिखरि जात।
सरकि-सरकि जाय सेरे पै सरोजनैनी,
फरकि-फरकि केलिफंद तें उछरि जात॥52॥
कल केलि-भोंन में कलानिधिमुखी सों कंत,
केलि करतें ही ‘नाहीं’ मुख सों निकल परै।
झिलकी न जानै, हिलमिल की न जानै बात,
हिलकी में सोभ झिलमिल की उछल परै।
‘ग्वाल’ कवि मसकि-मसकि पिय राखै तऊ,
खसकि-खसकि प्यारी पाटी पै फिसल परै।
चंचला सी चपल सु पारद सी हलचल,
जल बिन मीन जैसे उछल-उछल परै॥53॥
छाँहौं न छुवति जा छबीली कों छला लै कहि,
छैल छलि लै गयो, अटारी बनी बिधि की।
पेखत ही परजंक, प्यारी पछितान लागी,
पकरि गिराई पीय, रासि रूप रिधि की।
‘ग्वाल’ कवि कीन्हीं केलि बिमल बिछौनन पै,
मौरि गई चूरी सेत पसुरीँ प्रसिधि की।
मानो छीरसागर उजागर सों मिली आज,
जुदी-जुदी ह्वै करि कला वे कलानिधि की॥54॥
द्वै-इक दिना की गौनहाई आई उरहाई,
चंद की निकाई नैन तरैं निहुराये हैं।
हेमी झूमकान की परी है आनि आभा यातें,
ह्वै गये बसंती वे कपोल गोल भाये हैं।
‘ग्वाल’ कवि लाल ने जगाई ख्याल प्यासो मद,
ह्वै गये कपोल लाल, लाल ललचाये हैं।
चूमि-चूमि चूँसै तो चमकि परै बिजुली सी,
फेर वे बसंती के बसंती होय आये हैं॥55॥
(सवैया)
मायके में कत आइगो कंत, चहै मिलिबो, करै कोटि उपाइन।
हौं अति लाजन जात गड़ी, कहैं भैंन औ’ भाभी परोसिन नाइन।
नैक तू जा कवि ‘ग्वाल’ पियारे पै, सौंह दै हा हा करैं परैं, पाइन।
सासुरे की तो कसाइन ही, पर पीहर हू की भई दुखादाइन॥56॥
विश्रब्धनवोढ़ा लक्षण (दोहा)
जदपि लाज भय जुक्त (वह), तदपि होय कछु पोढ़।
कछु पतियान जगै पियै, सो विश्रब्धनवोढ़ा॥57॥
यथा (सवैया)
न तिया रति चाहत है अब लों, दूरी रहै मनु चोरी किये।
रतियाँ गहि भेजत भाभी इहा, तब आवत है झकझोरी किये।
गति या कवि ‘ग्वाल’ रहै सिकुरी, मधुरी मुसिकानि सुथोरी किये।
पतियान लगै बतियान कछू, छतिया न लगै बिन जोरी किये॥58॥
मध्या लक्षण (दोहा)
मदन लाज के धरम दुहूँ, जा तिय तन में होय।
मध्या ताकों कहत हैं, बुधजन गन सब कोय॥59॥
यथा (कवित्त)
साटन के सुरख बिछौंना बिछे सेज पर,
रंगा मेजमेज मन, मौज की निसाँ करैं।
अतर बिना ही तिय तन में अतर भासो,
सतर उरोजन पै गोटन की साँकरैं।
‘ग्वाल’ कवि प्यारे लाल नीबी को बढ़ायो कर,
सरकि चली सो आगे, आवन चहा करै।
आँगुरी से ‘ना’ करै, सु भौंह तें गुसाँ करै,
सुनैनन तें हाँ करै, पै मुख तें ना ‘हाँ’ करै॥60॥
(सवैया)
नख तें सिख लों लदी रूप की रासि, लगी पति प्रेमपगी बतिया पै।
जुग जंघ जुराजुरी होत जबै, तबै राखत है इक हाथ हिया पै।
कवि ‘ग्वाल’ धरै कर दूजो बढाय, पिया कटि ऊपर की बिधिया पै।
तकि या रतिकेलि-कला की जऊ, तउ जात चली सरकी तकिया पै॥61॥
(कवित्त)
सौंह खाइ साँची सी सुनाइ यों सरोजनैनी,
कौन सी सखी तें सीख सीखी चितचाही है।
केलि करिबे कों जब चहौं मैं मयंकमुखी
तब तकि बंक आइ लागै अंक माही है।
‘ग्वाल’ कवि बाँही के गहत, बाँही खेंचि लेत
बाँही को छुड़ाय आप डारै गलबाँही है।
नाँही है कि हाँ ही है, कि हाँ ही येक नाँही है, कि-
नाँही माँहि हाँ ही है, कहौ तौ कैसी नाँही है॥62॥
सुरतान्त
अंग-अंग आलस तरंग रंग-रंग भरी,
उतरि पलंग तें, पधारी ज्यों झरप है।
प्यारे गह्यो चीर, काम-पीर तें न पायो धीर,
प्यारी कह्यो हाय भयो भान को दरप है।
‘ग्वाल’ कवि अधिक ईचाईंची समै में तहाँ,
हालत कुचन बीच बेनी अधरप है।
मानो मलयाचल के सिखिर दुबीच आय,
लोटत सुगंधि लै-लै कालिया सरप है॥63॥
प्रौढ़ा लक्षण (दोहा)
कामाधिक किंचित त्रपा, जा तिय माँहि दिखाय।
बहुबिधि पति सों रमहि जो, सो प्रौढ़ा कहलाय॥64॥
यथा (कवित्त)
अंग में अनंग की उमंग उमगाई परै,
रंग-रंग कोककला कौतुक अपारें हैं।
बालम कों बीरी पर बीरी दै खवावत है,
बालम सों बीरी आप खाय बार-बारैं हैं।
‘ग्वाल’ कवि गोरी कभूँ हँसै, कभूँ बतराय,
तामें दंत-दुति दरसात सो उचारैं हैं।
मानो चारु चंद माँहि चमकत चपला है,
चपला में हीरे की कनीन की कतारैं हैं॥65॥
(दोहा)
हैं प्रौढ़ा के भेद द्वै, रतिप्रीता इक जान।
पुनि अनंदसंमोहिता, बुधजन करत बखान॥66॥
रतिप्रीता लक्षण
जा तिय को रति के बिषै, प्रीति बहुत ही होय।
रतिप्रीता सो जानिये, बरनत हैं कवि लोय॥67॥
यथा (कवित्त)
एहो मीत मुगधा में मौज है न ऐसी कछू,
जैसी अति मौज मिलै बैस सरसाती तें।
राति भरि प्यारी केलि-कला में लगाये रहै,
नीद अलगाये रहै, बतिया सुहाती तें।
‘ग्वाल’ कवि काहू मिस मूँदि आवै खिरकी कों,
फिरकी लों फिर आवै, देह अलसाती तें।
भोरहू भये पै चीर दाबत है मोर-मोर,
जोर-जोर जंघन छपकि जात छाती तें॥68॥
आनन्दसम्मोहिता लक्षण (दोहा)
करि-करि रति आनंद में, पिया विमोहित होय।
सो अनंदसंमोहिता, बरनत हैं सब कोय॥69॥
यथा (कवित्त)
करि रति रत बिपरीत मैं रचाई आज,
अहा-अहा कैसो लचयो प्यारी को सुलंक है।
मसक भरत-भरत ससकी करत-करत
रस की नदी में लीन ह्वै गई निसंक है।
‘ग्वाल’ कवि छाती पर छपकि छरी सी गई,
लै कैं थरथरी सी बिसुध भयो अंक है।
मेरो उर मखमल मृदुल बिछौना पाय,
सोयो मनो सरद की पूनों को मयंक है॥70॥
सुरतान्त
प्रीतम तें सुरति-समर करि प्रीति भरी,
आइ परी तिदरी में, अंग न संभारे हैं।
नीबी बँधी कितहूँ उरोज अधमूँदे रहे,
खिल रहे लोचन सहज कजरारे हैं।
‘ग्वाल’ कवि आनन अमल पर अब जग,
छाये स्वेद-सीकर, लगैं न काहि प्यारे हैं।
मानो रति रानी के मुकर जानि मनमथ,
ख्यात हित पारद के किनका पसारे हैं॥71॥
बिधि बिरची-सी, प्रेमपुंज परची-सी जँची,
सची हू न ऐसी सची, कोक की कथा को हेत।
कौमुदी मुदी-सी दीसी, दसन बतीसी लखि,
लसन बसन की औ’ ताके बादला को सेत।
‘ग्वाल’ कवि रति में लगे जो कुच नखछत,
रुचकर देखै गोरी मोहन पिया को हेत।
मानो झुकि झपकि मयंक है निसंक आज,
ईस जू के सीस पै तें आपनी कला कों लेत॥72॥
धीरादिक भेदवर्णन (दोहा)
अइठ हेतु तें पीय पै, कुपित तिया जो होय।
तीन भेद ताके कहत, कवि पंडित सब कोय॥73॥
धीरा येक बखानिये, दुतिय अधीरा होत।
धीराधीरा तृतीय है, कविजन करत उदोत॥74॥
मध्या-प्रौढ़ा ही बिषै, कहे भेद ष्ज्ञट् होत।
प्रबुधिन मुग्धा तासु तें, भेद न ये उद्दोत॥75॥
धीरादिक के स्थूल लक्षण
ब्यंग अब्यूगरु’ दुहुन मिलि, तिय रिस करै प्रकास।
धीराधीरा में तिहूँ, सक्रम लखहु हुलास॥76॥
भिन्न-भिन्न लक्षन लिखत, भेद प्रथम ता काज।
मध्या प्रौढ़ा लखि परैं, जुदी-जुदी कविराज॥77॥
मध्या धीरा लक्षण
ब्यंग भरी बानी उचरि, पियै जनाबै रोस।
सो मध्या धीरा बिदित, मधुराई को कोस॥78॥
यथा (कवित्त)
काल्हि न इकादसी ही, तातें कहूँ जागे आप,
जाप लागे कैधों काहू काम के उमाहे सों।
कैधों दिग भूल भूले घुमरी न पायो घर,
कैधों कहूँ ठुमरी सुनत रहे लाहे सों।
‘ग्वाल’ कवि कैधों रहे चौसर के खेलन में,
औसर बन्यो न किधौं काहू मीत चाहे सों।
मेरे प्रान, प्रान स्याम परम सुजाने सुनो,
आज अलसान अँगरान कहौ काहे सों॥79॥
मध्या अधीरा लक्षण (दोहा)
बचन कठोर जु भाखिकै, पिय कों सूचै कोप।
मध्य अधीरा बाल वह, कहै सुकवि मति ओप॥80॥
यथा (कवित्त)
आये पास कौन के हो, भूले कोंन भौंन के हो,
डगमग गौन के हो, देह मौज माँची है।
पाग पेच ढीले भये, दृग उनमीले भये,
तऊ न लजीले भये, पाठी भली बाँची है।
‘ग्वाल’ कवि और न उपाय ब्रजराज अब,
जाउ-जाउ जहाँ चाहु, मैं तो यह जाँची है।
घर की जो मिसरी सो फीकी सी लगन लागै,
मीठो गुड़ चोरी को, कहत यह साँची है॥81॥
कुंद ह्वै कही मैं बात केतकी तिहारे पास,
एकहू न मानी यह मोतिया कहा कही।
सेवती तुम्हें वे जिन मारे हैं मदन बान,
परे इस्क पेचन में रीत और ही गही।
‘ग्वाल’ कवि कपट कदंब क्यों करत प्यारे,
दुपहरिया आये इहाँ चाँदनी उहाँ लही।
मोगरे लगौ न लाल सोनजुही लागी काल्हि
रोसन भई है मोहि सोसन तुम्हें रही॥82॥
मध्या धीराधीरा लक्षण (दोहा)
ब्यंग बचन कहि, अश्रु सों, जनवै पियहिँ अधीर।
यों रिस बोधै, तिय जुसो, मध्या धीराधीर॥83॥
यथा (कवित्त)
इंदीवर लोचनन कोकनद कर लाये,
वारों कहा आलसी सु अंगन छबीले पै।
सरकि रह्यो है सिर पेचापेच सीस पै सों,
मेरे हित आये दौरादौर प्रात दीसे पै।
‘ग्वाल’ कवि ये ही कहि, कजरारे नैनन तें,
आँसू लागे झरन कपोलन अमी से पै।
मानो खरे खंजन सुनीलमनि उगलत,
ढुरकि परत देखो कैसे साफ सीसे पै॥84॥
प्रौढ़ा धीरा लक्षण (दोहा)
उदासीनता रति विषै, पियहिँ जनावै बाल।
प्रौढ़ा धीरा कहत हैं, जिनकी बुद्धि बिसाल॥85॥
यथा (कवित्त)
पहर बिताय रात, आये पिय अलसात,
गात-गात अतर बराबर समोये से।
जोये ऐसे हाल, बाल पौढ़ि रहि पलका पै,
लाल लगे केल खेल मतवारे होये से।
‘ग्वाल’ कवि प्यारी ने न अँगिया उतारी तऊ,
औ’ न अंकबारी भरी सो रस बखोये से।
रोचन के मोये से, मरोर बीज बोये से, जु-
अमल के भोये से, करे हैं दृग सोये से॥86॥
प्रौढ़ा अधीरा लक्षण (दोहा)
पिय पै कछुक रिसाय कै, करै मृदुल की मार।
प्रौढ़ अधीरा होत सो, बरनत बिदुष बिचार॥87॥
यथा (कवित्त)
लाल के ललित लोने लोयन ललित लखि,
लोयन ललित करि लीने तें लहल है।
नज़र नुकीली तें निहारे क्यों नलिननैनी,
नागरी ह्वै नाहक दिखावत दहल है।
‘ग्वाल’ कवि नीर तें, नसा तें, नींद-नास तें कि,
निहचै न होत लाली काहे तें गहल है।
मालती की मालन तें मारै मति मोहनी तू,
मोहन तो महा मृदुलाई को महल ह॥88॥
प्रौढ़ा धीराधीरा लक्षण (दोहा)
रखै उदासी रति बिषै, रिस मृदु मारहु देइ।
प्रौढ़ा धीर अधीर सो, जानत हैं बुध भेइ॥89॥
यथा (कवित्त)
करत कुदाकुदी सरकि परै पाग पेच,
फरक न जानि का बहम पकरी सी है।
उर तें लगी तो सही, पै न लगी उर तें तू,
पगी है न रसरीति, ऐसी बिफरी सी है।
‘ग्वाल’ कवि कहै बात-बात में खफा तू होत,
तो तें को खरी है, मेरी प्यारी तू परी सी है।
मौलसिरी मालन तें मारत है परी-परी,
जानि परी मोहि मेरे गात उछरी सी है॥90॥
(दोहा)
धीरादिक छह भेद में, जेष्ठ कनिष्ठा मेल।
भाषत हौं लक्षन अबै, बहुरि लक्ष सुख रेल॥91॥
ज्येष्ठ-कनिष्ठा लक्षण
ब्याही अनब्याही कहा, जो धरनी करि राखि।
अधिक न्यून पिय-प्रेम तें, ज्येष्ठ कनिष्ठा भाखि॥92॥?
यथा (कवित्त)
सबज बिछात छात सुरख सफाई लिये,
कड़िया सुन्हैरी में सु रेसम हरित डोर।
चीकनो चमकदार चौडौ चोखौ रँग्यो पाट,
तापर बिछौना बिछ्यो मृदुल किनारी कोर।
‘ग्वाल’ कवि येक कों जु साम्हने बिठाय दीनी,
दूजी कों बिठाई निज वोर मुख ताकी ओर।
मचकि-मचकि प्यारो प्यार सों बढ़ावै पेंग,
प्यारी की तरफ मुसिकात राखै दृग जोर॥93॥
मानवर्णन (दोहा)
स्वकिया में ही संभवत, मान तीनि बिधि होय।
आसक्त तू तें बनत नहिँ, परकीया में कोय॥94॥
परकिय में नहिँ मान जिमि, तिन हेतुन बिसतार।
ग्रंथ ‘साहितानंद’ में, लखि रिझिहैं रिझवार॥95॥
मान लक्षण
अपुन अहित पति किय समुझि, रूँसै मनवन चाह।
सो जु मान, तिहिँ धरन तें, मानिनि कहि कविनाह॥96॥
मान त्रिबिध सो होत है, लघु मध्यम गुरु जान।
लक्षन लक्ष जु सबन के, पृथक-पृथक पहचान॥97॥
लघु मान लक्षण
प्रीत भर्यो पिय पेखि ही, पर तिय तरफ सुदेख।
निज नारी की रुँसनि जो, सो लघु मान जु लेख॥98॥
मध्यम मान लक्षण
अन्य नारि को नाम कहुँ, पिय-मुख तें कढ़ि जाय।
या बतरात लखै-सुनै, मध्यम मान कहाय॥99॥
गुरुमान लक्षण
और नारि रतिचिन्ह दृढ़, तिय पिय तन पहचान।
या कहुँ तिय की वस्तु लखि, रूँसै सो गुर मान॥100॥
मानमोचन लक्षण
लघु मध्यम गुरु मान कों, मोचन या बिधि होय।
ख्याल, सौंह, पद-परस तें, जथासंख्य करि जोय॥101॥
लघु मान और मोचन: एकत्र (कवित्त)
जैसी तेरी भौहैं वैसी वा तिया की दई दइया,
तनिक नजर गई तो ठीक चाहवा।
तापै त्यौर रूँसौ तुमै करिबो न लाजिम है,
आओ लखो चोपर की चाह रस राहवा।
‘ग्वाल’ कवि यों कहि सखी सों लाल खेलन लगे,
हेरी परी हार सी, रह्यो नहीं उछाहवा।
पासौ लै पिया तें प्यारी, बोली ऐसे सात परैं,
प्यारो मुसिकाय बोल्यो वाहवा जी वाहवा॥102॥
स्वमान मोचन
बोलै क्यों न आली, का गुनाह उन पाली ऐसि,
जातें करी लाली बनमाली तौ अधीरे से।
ऐसो कौन हौंन जानों जो सहै तिहारो तेज,
कंबु किलकार्यो करै, दार्यो परे चीरे से।
‘ग्वाल’ कवि कहै कीर कैदी मैं किये हैं केते,
तीर पंचतीर कै तकै ते होत सीरे से।
चामीकर चमपा चिराक चारु चंपक हू,
चितै-चितै प्यारी तोहि परि गये पीरे से॥103॥
रसिकसिरोमनि पिया को पानि जाचकान,
आनंद की खान, दान देइबे कों भोज हैं।
अजब अनूठे बिधि कीले द्वै बनाये हैं सो,
ऊँचे होत आवत, रहैं न जिमींदोज हैं।
‘ग्वाल’ कवि लाल उर सीतल सुगंधकारी,
भारी रूप-ताल के मुँदे भये सरोज हैं।
सौतिन कों रोज़कर, आलिन कों चोज़कर,
प्यारे को मनोज-ओजकर ये उरोज हैं॥104॥
खासा पिय पाय, रिस जी न धर, मीठो बोल,
झोला कमरख तार तोर तू न संग को।
नैन सैनू करि जामदानी बनी डोरी ये है,
चार खाने चलि प्रेम गाढ़ा को उमंग को।
‘ग्वाल’ कवि ऐसी तन जेब महमूदी तेरी,
तामें सील असहन थान है कुढंग को।
घाटी जीन है तौ हाथ मलमल पछितै है,
तन सुख चाहै तौ लै स्वाद रतिरंग को॥105॥
तू है सौतिसालू वे जरी ही रहत सदा,
मसरू भई हैं अति, ईरखा जगत है।
साटन चहत गुलबदन पिया कों सब,
ए पै वाद लावै, चित वहन पगत है।
‘ग्वाल’ कवि कीमखाँ पतिन के करेजे तैनै,
आँसू बहैं मानो दरियाई उमगत है।
रोम-रोम किरन तिहारे अति लसै रूप,
तेरे मुख आगे चाँद तारा सो लगत है॥106॥
बानी है इमरती औ’ मोदक सरूप तेरो,
लाखुरपा जोरिये, तऊ न तेरी सर होय।
बरहू तिहारो बरफी न जामें नैकहू है,
खोया कबहू न कह्यो, तेरो सरासर होय।
‘ग्वाल’ कवि तू गुलगुलाई हँसी मिसरी जो,
तो पै कहा गुपचुप बैठिये सतर होय।
रेख बालूसाही प्रीति प्रीति सों राखियेन, आ-
जलेबी मेल सौंह खा जावै मकर होय॥107॥
मान की न बेर, सनमान की न बेर प्यारी,
मान कह्यो मेरी झुकि झाँकि तौ झमाके सों।
लहलही बेलें तेऊ तरु-तरु संग खेलें,
वाहवा लै लायें (जायें) छबि के छमाके सों।
‘ग्वाल’ कवि बूँदें दूँदें रूँदें बिरहीन हीन,
नेह कीन मूँदै कौन, मूँदै रूरवाके सों।
घूम आये, झूम आये, लूमि आये, भूमि आये,
चूम-चूम आये घन चंचलै चमाके सों॥108॥
मैं न अपराधी, तुम साधी क्यों रिसीली रीति,
आधी सेज तजि, मेरी ओर पीठ फेरी है।
ऐ पै कर मेरी तेरी बगल बिची में धँसी,
पूज कुच-संभु, आस पुजईं घनेरी है।
‘ग्वाल’ कवि और देव पीठि के पुजैयन कों,
दूसरे जनम वर मिलत अवेरी है।
इहाँ को इहाँ ही फल दैनहारी मैं निहारी,
यातें प्रानप्यारी यह सिद्धपीठ तेरी है॥109॥
पीठ मोरे बैठी, दृगकोरें करो मेरी ओरें,
कौन के कहन भोरैं-भोरैं कहौ पाट में।
साईं हौं सरोजमुखी, अलख जगाओ जाय,
हौं तो घरवारौ, कापै वारौं घर बार में।
‘ग्वाल’ कवि हौं पी मैं तो, केली तौ बिराजो बाग,
पी हौं पिकबैनी, प्यासे, पियो नदी धार में।
प्रीतम हौं प्यारी, ह्वै हौ चोर-विभचारिन कों
धनी हौं पियारी, साहूकारी करौ हाट में॥110॥
मध्यम मान और मानमोचन: एकत्र
सोवत में लाल लाजवंती लाजवंती कही,
सुनत सरोजमुखी बोली अति सेरी सों।
भली लाजवंती है निगोड़ी पर-पति पागी,
लाल जगि पर्यो सुनि, बोल्यो बिन देरी सों।
‘ग्वाल’ कवि सुपने में लाजवंती बूँटी लही,
वही कही होयगी मैं नींद उरझेरी सों।
तेतरी मुसिकानि की सों, मुरि हँसि जान की सों,
सुनि यो सुजान की सों, कहु खाउ मेरी सों॥111॥
गुरु मान और मोचन एकत्र
अंजन अधर लग्यो, जग्यो जामिनी को लाल,
देखि रगमग्यो बाल आरसी दिखाय दी।
भभरि परी-सी परी, भौंन-कोंन मौन गहि,
प्यारो पौन करि-करि नारि निहुराय दी।
‘ग्वाल’ कवि कहै फेरि, प्यारी की बलैंया लै-लै,
पैया परि गयो, बीरी आगे सरकाय दी।
नज़रि निचौंही सों उचौंही भई भामिनी की,
ह्वैकै मुसिकौंही सौंही चौपर बिछाय दी॥112॥
॥इति श्री रसरंगे ग्वालकवि विरचिते स्वकीयाभेदमानवर्णनं नाम द्वितीयो उमंग॥