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बसात / शशिधर कुमर 'विदेह'

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ओ शिल्पकार छी एहि धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि।
स्पर्श मात्र कए सकइत छी, निज आँखि सँ देखब सपने अछि॥

ब्रम्हा बनि कखनहु सृजन करय,
कहुखन हर रूप कराल धरय।
कहुखन हरि सम पालनकर्त्ता,
कहुखन यम-सद्यः काल बनय।
ओ जिनगी छी एहि धरती केर,
सभ जीवक साँस समाहित अछि।
एहि धरती पर जे रिक्त लगय,
ओहि शुन्यक बीच प्रवाहित अछि।
नञि मूर्त रूप पओलक कहियो, पर दिव्य रूप संवरने अछि।
ओ शिल्पकार छी एहि धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि॥

ओ योगवाहि, की नञि बुझल ?
ओ कऽ सकैछ ककरो संगति।
जकरा संग, जा धरि मीत रहय,
तकरे सन गुण, तकरे रंगति।
के नञि जनैछ पुरिबा-पछिबा,
मलयक बसात के नञि जनइछ।
ककरा नञि अनुभव चक्रवात,
लू-जेठक दुपहरिया तपइत।
अनल, अनिल केर संग पाबि, सोनक लंका केँ डहने अछि।
ओ शिल्पकार छी एहि धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि॥

कहुखन एकसरि सरिता जल पर,
जनु जलतरंग ओ बजा रहल।
कखनहु मरु मे वा सागर तट,
लीखि बालु सँ अपने मेटा रहल।
ओकरा सोझाँ, के रहल अडिग,
बिनु दर्प-दलित, के रहल ठाढ़ ?
कत विटप उखाड़ल, सिन्धु मथित,
भासित पहाड़, अपचित पठार।
अगनित पाथर केँ काटि-छाँटि, कत रूप-अनूप ओ गढ़ने अछि।
ओ शिल्पकार छी एहि धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि॥