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भूकम्प - ‍२ / शशिधर कुमर 'विदेह'

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बूढ़-पुरैनिञा कहै छलथि,
ओ बड़का छल जे भूकम्प।१
छओ महीना धरि थीर ने धरती,
रहि-रहि होइ छल कम्प॥

हम अबोध, ओहि समय युवा जे,
मारए छलाह ठहक्का।
मैञा-बाबा छथि भँसिआएल,
फेंकथि बड़का-बड़का॥

आइ बुझै छी मैञा-बाबा,
कहए छलाह की तहिया।
अप्रीलक बादो कँपैत अछि,
धरती जहिया-जहिया॥

बड़का भूकम्पक कारण जे,
उपजल छोटका भ्रंश।
से सभ गऽड़ धरए रहि-रहि कऽ,
खन-खन होइए कम्प॥

आइ महीना दिन बीतल अछि,
आयल मई पच्चीस।
कए बेर धरती डोलि चुकल, आ
एखनहु मन भयभीत॥

बीचमे सेहो बारह मई कऽ,
बड़का धरती-कम्प।
निन्न ने एखनो गाढ़ पहिल सनि,
काँपए मन हड़कम्प॥

कहुखन-कहुखन एना लगैए,
देह जेना डोलइए।
अकचकाइत चहुँदिशि तकैत छी,
कहाँ किछो डोलैए ??

आस–पास किछु लोक कहल जे,
भ्रम ओहिना भेलौए।
पर किछु लोक कहल पुनि, हमरो
तोरे सनक लगैए॥

किछु मोनक सन्देह सेहो, पर
किछु छल छोटका कम्पन।
चीज-बस्तु सभ थीर लगैए,
देह बुझैए कम्पन॥

१-सन् ‍१९३४ ई॰ केर भूकम्प