भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माया मण्डप / लोकगीता / लक्ष्मण सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:42, 28 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मण सिंह चौहान |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुन्दर अनूप एक सभा के मण्ड प रामा।
राज काज खातिर बनवावैय हो सांवलिया॥
पाँच हजार गज भूमियो भवनमां हो।
बनी के तैयार जब होलैय हो सांवलिया॥
दूर दूर से लोग सब देखे सुने आवैय रामा।
देखत न अखिया अधावेय हो सांवलिया॥
कुछ काल, सुख शांति सगरो बिराजैय रामा।
पाण्डव के नाम यश होबैय हो सांवलिया॥
हरि गुण गान आत बीणा बजात रामा।
नारद जी पाण्डव के राज हो सावलिया॥
मुनि के प्रणाम करि, पूछत कुशल छेम।
बड़ भाग्य दरशन भेल हो सांवलिया॥