Last modified on 29 अप्रैल 2017, at 21:33

कर्ज के मुखौटे / महेश सन्तोषी

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:33, 29 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तोषी |अनुवादक= |संग्रह=अक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अगर कर्ज में मिलती कहीं मुखौटे की सभ्यता
तो हमने मुखौटे के कर्ज ले लिये होते
चारों तरफ होता मुखौटों का विकास
चेहरों के भीतर चेहरे छिपे हुए होते।

हमने हर तरफ पूछ कर देख लिया
कहीं पर कर्ज में विकास नहीं मिलता
हर शहर में मिलते हैं कर्ज के विकास-नगर
पर विकास-नगर में भी अब विकास नहीं मिलता।

सड़क पर टूटे हुए पुलों की तरह
विश्वास के पुल भी एक-एक कर टूट गये,
चारों तरफ बढ़ती गयीं अविश्वास की खाइयाँ
विकास से अविकास तक हम हर रोज ठगे गये।