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रोटियों की सरहदें / महेश सन्तोषी

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हमारे हाथ थकते हैं तो थकें
हमारी हथेलियाँ दुखती हैं तो दुखें
दूसरों की रोटियाँ सेंक-सेंक कर ही
हम तो छू लेंगे अपने सपनों की छतें
परायी रोटियों पर तो
बनाने वाले तक का हक नहीं होता।

आटा गूँथ कर हाथ धो लेते हैं हम
फिर थाम लेते हैं कर्म की कोई गीता
दूसरों की भूख मिटाने में ही
हमें मिलता है एक अपरिमित सुख
भूख किसी की भी हो, बुझाने में छिपी होती है

माँ की ममता
ना कोई हमसे कभी पूछेगा
ना हम किसी से कभी पूछ पायेंगे
सदियाँ आई-गयीं, पर घरों के आगे क्यों नहीं गयीं?
रोटियों की सरहदें।

...छू लेंगे सपनों की छतें।
जब कर्म ही धर्म हो,
तब हाथ ही दिखते हैं
और कुछ नहीं दिखता।
अगर हम बर्तनों में चेहरे देखते भी
तो हमें बस पेट का चेहरा दिखता
रोज की अलग-अलग रसोइयाँ
रोज के अलग-अलग रसोईघर
अब तो हमें सपनों में भी दूसरों के ही घर दिखते हैं
खुद का घर नहीं दिखता।

बाँटने को लोग पास में बाँट ही रहे हैं
भूख, प्यास और गरीबी
पर हमारे हाथ दूसरों को तृप्तियाँ बाँटते,
तृप्तियाँ परोसते, नहीं थकते।
...छू लेंगे सपनों की हदें।