न परछाईयों से बात हो पाई
न यादों से सम्वाद
सिर्फ एक याद की तरह ही
क्यों याद आये तुम हमें आज?
कई वर्षों से हमने बस फासले ही देखे
दूर या पास में तुम्हें कहीं देखा नहीं;
पर प्राणों में कभी ऐसा पिरोया था तुम्हें
जब तक हम खुद न खो जाएँ
तुम्हें खोने का अंदेशा ही नहीं।
क्या दिन, क्या रात? सांसों पे सहते रहे हम
सपनों के, समय के, सत्य के आघात
सच, पल भर को भी नहीं भूले हम बिल्कुल;
वो प्राणों की पुलकनें,
चार बांहों के पुल।
बसाये नहीं हमने फिर से बिखरे मन के गांव,
अस्ताचल तक ढो लिये अपने उजड़े हुए गोकुल,
अब बस धुंआ बाकी है, न धरती, न आकाश,
प्यार के दो डूबे हुए क्षितिजों के पास,
सिर्फ एक याद।