Last modified on 2 मई 2017, at 12:19

प्यार और विवाहिता / महेश सन्तोषी

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:19, 2 मई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तोषी |अनुवादक= |संग्रह=हि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

देह के सम्मोहनों से, आकर्षणों से, आगे ही जाते हैं मोड़,
स्थायी प्यार की स्थिर सरहदों के,
ये ज़रूरी तो नहीं है कि हर प्यार हमेशा स्पर्शों पर ही जिये,
और बिना स्पर्शों के मर जाए हमेशा के लिए,
संबंधों की लिपियों में बँधी संहिताओं से, हाशियों से,
रेखाओं से इसीलिए हम रहे अछूते, अनछुए।

हुआ यह कि एक दिन तुम किसी और की विवाहिता बन गयीं,
हम भी अविवाहित नहीं रहे, बस यादों, व्यथाओं,
चाहों का एक रीता कोश साथ रहा;
अगर हमारे प्यार के प्रारब्ध में ही नहीं था वैवाहिक बन्धन,
तो क्या इससे हमारे प्यार का कद कुछ नीचा कुछ कम रहा?

मेरा यह प्रश्न तुम से भी है,
स्वयं से भी
और उस समाज से भी,
जो हमें दूर से घूरकर देखता रहा!
मेरा यह प्रश्न...?