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दर्द तीन पीढ़ियों का / महेश सन्तोषी

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तुमने बच्चों के हक, उनके हिस्से का वक्त मेहरबानियाँ जताकर
बड़ी बेरहमी से उनके माँ-बाप से छीन लिया?
मोटी-मोटी तनख्वाहें दीं, आदतें पुरानी पूँजीवादी थीं,
उन्हें नया सुहावना नाम देकर, धरती पर स्वर्ग का पैगाम दिया!

तुमने मेरे पिता के आज के सवेरे छीन लिये, कल की दोपहरियाँ खरीद लीं,
रात को भी घर देर से आने दिया,
कौन कहता है, अब नहीं बचे बन्धुआ मजदूर?
नयी-नयी ब्राण्ड बाज़ार में आ गयी, कई इंच उनका क़द बढ़ गया।

गरीब देश का धन थे, दिमाग के धनी थे,
बड़े ओहदे दिये, जिस भाव से बाजार में जैसा चाहा, मजबूरियाँ खरीद लीं।
घर के अन्दर दो पीढ़ियाँ, वक्त के लिए तरसती रहीं,
एक पीढ़ी बाहर वक्त की चक्कियों में पिसती रही!