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साहित्यिक बड़े क़द के / महेश सन्तोषी

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तुम साहित्यिक बड़े क़द के थे, पर, आदमी छोटे क़द के,
दोनों क़दों में फासला इंचों का नहीं, नस्ल का था।
मैं हैरान था, तुमने यह बहुरूपियापन
दोनों ही रूपों में कितनी हिकमत और हिफ़ाजत से जिया था!

पर, तुम्हें दिखाने को मेरे पास एक आईना भी था,
क्योंकि मेरी ज़िन्दगी जिस सड़क से गुजरी थी,
उस पर तुम्हारा भी धोखे का एक घर था!

शब्दों में तुम मूल्यों को पूजते रहे, उनके सजग-सजग सचेतक रहे,
पर, कर्मों मकें मूल्यहीनता ही तुम्हारा धर्म बन गयी,
न सीमाओं में रहे, न मर्यादाओं में रहे,
सच तुम समय, समाज, शब्द सबको एकसाथ या एक-एक कर छलते रहे!

जिनने तुम्हें पास से देखा-परखा, उनके पास तुम्हें
नापने के पैमाने भी थे, आईने भी थे
बस दूर की दोस्तियाँ वैसी की वैसी बनी रहीं।
दूर के ढोल थे, लुभावने थे, सुहावने थे,
अगर ज़मीर होता तो पूछ लेते तुम शब्दों से,
बेईमानी के असलियत में क्या मायने थे?